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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-4] [135 गया। दृष्टि में ज्ञानानन्दस्वभाव की मुख्यता में धर्मी को अल्प दोष की गौणता होने से उपगूहन अङ्ग वर्तता ही है और प्रतिक्षण उसकी आत्मशुद्धि बढ़ती जाती है, इसलिए धर्मी को प्रतिक्षण निर्जरा होती जाती है। धर्मी ने अपने शुद्ध चैतन्यमूर्तिस्वभाव में उपयोग जोड़ा है, उसका नाम परमार्थ से 'सिद्धभक्ति' है; जहाँ शुद्धस्वभाव पर दृष्टि है, वहाँ अल्प दोष पर दृष्टि ही नहीं; इसलिए उसे दोष का उपगूहन वर्तता है। चैतन्यस्वभाव को प्रसिद्ध करके दोष का उपगूहन कर डाला है; एक क्षण भी दोष की मुख्यता करके स्वभाव को चूक नहीं जाते; इसलिए उन्हें शुद्धता बढ़ती ही जाती है। ऐसा धर्मी का उपगूहन है; उन्हें प्रति समय मोक्षपर्याय के सम्मुख ही परिणमन हो रहा है। अहो ! दृष्टि का ध्येय तो द्रव्य है और द्रव्य तो मुक्तस्वरूप है; इसलिए दृष्टि में धर्मी प्रतिक्षण मुक्त ही होता जाता है । वास्तव में मिथ्यात्व ही संसार है और सम्यक्त्व, वह मुक्ति है। धर्मी को अन्तर में शुद्ध चैतन्यस्वभाव पर दृष्टि है, उसकी ही भक्ति है और उसका फल मुक्ति है। पर्याय के अल्प दोष के प्रति आदर नहीं; इसलिए उसकी भक्ति नहीं; उस अल्प दोष को मुख्य करके स्वभाव की मुख्यता को भूल नहीं जाती – ऐसे धर्मात्मा को अशुद्धता घटती ही जाती है और शुद्धता बढ़ती ही जाती है; इसलिए उन्हें बन्धन नहीं होता परन्तु कर्मों की निर्जरा ही होती जाती है; इसलिए वे अल्प काल में मुक्त हो जायेंगे। धर्मी को भी जो राग है वह कहीं निर्जरा का कारण नहीं है, परन्तु अन्तर्मुख दृष्टि के परिणमन से प्रतिक्षण जो आत्मशुद्धि की Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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