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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
* आत्महित के कार्य में आलसी जीव सदा ही चिन्तवन करता है कि फिर करूँगा... फिर करूँगा... फिर करूँगा... परन्तु यह बात भूल जाता है कि भविष्य में मर जाऊँगा, क्योंकि मरण तो प्रतिक्षण दौड़ते-दौड़ते नजदीक और नजदीक आ रहा है।
★ इसलिए हे भाई! 'करूँगा... करूँगा' ऐसा विलम्बभाव छोड़ दे! मरण को याद करके वर्तमान में ही आत्महित में परिणाम लगा। आत्महित की उत्कृष्ट लगन हो, वहाँ भविष्य की राह देखने का विलम्ब कैसे पोसायेगा? यह कार्य तो इसी क्षण से करना होता है। ___* जिसे अन्तर में आत्मा की गरज हुई हो, सम्यग्दर्शन प्रगट
करने की चाहना जागृत हुई हो, ऐसा जीव, चैतन्य को पकड़ने के लिये एकान्त में अन्तर मंथन करता है कि अहो! चैतन्यवस्तु की महिमा कोई अपूर्व है! उसकी निर्विकल्प प्रतीति को किसी राग का या निमित्त का अवलम्बन नहीं है; शुभभाव भी अनन्त बार किये, तथापि चैतन्यवस्तु लक्ष्य में नहीं आयी, तो वह राग से पार चैतन्यवस्तु कोई अन्तर की अपूर्व चीज है। उसकी प्रतीति भी अपूर्व अन्तर्मुख प्रयत्न से होती है-इस प्रकार चैतन्यवस्तु को पकड़ने का अन्तर्मुख उद्यम, वह सम्यग्दर्शन का उपाय है। ___ * जिसे शुद्ध आत्मा समझने की धगश जगी है-ऐसे जिज्ञासु जीव को प्रश्न उत्पन्न होता है कि शुद्ध आत्मा का कैसा स्वरूप है ? जैसे रण में किसी को पानी की प्यास लगी हो, पानी पीने की छटपटाहट हुई हो, उसे पानी की निशानी सुनने पर और उस पानी
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