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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
★ मुमुक्षु जीव के परिणाम उज्ज्वल होते हैं, प्रत्येक प्रसङ्ग में वह वैराग्य में गतिमान होता है । मुमुक्षु को जातिस्मरण इत्यादि भी वैराग्य का ही कारण होता है, राग का कारण होता ही नहीं । पूर्व के भव और पूर्व के भाव याद आने पर ऐसा लगता है कि आहा ! ऐसे भव और ऐसे भाव मैं कर आया; अब तो इस संसार के प्रति वैराग्य ही करनेयोग्य है। इस प्रकार वह आत्मा के साथ सन्धि करके वैराग्य बढ़ाता है।
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★ देखो न! सीताजी ने अग्निपरीक्षा के पश्चात् वैराग्य से संसार का परित्याग कर दिया और आर्यिका हो गयीं। रामचन्द्रजी जैसे महान धर्मात्मा और मोक्षगामी पुरुष, उन्हें भी लक्ष्मणजी के वियोग का कैसा प्रसङ्ग आया! छह माह तक लक्ष्मणजी के देह को साथ लेकर घूमे, तथापि अन्तर के श्रद्धा - ज्ञान में उस समय भी देह से भिन्न आत्मराम को देखते थे। आत्मतत्त्व का वेदन एक क्षण भी नहीं छूटा था और संयोग में एक क्षण भी तन्मय नहीं हुए थे । चाहे जैसे प्रसङ्ग में भी ज्ञानी की आत्मपरिणति संसार से विरक्त ही है ।
★ जिज्ञासु जीव को सच्चे देव-गुरु-धर्म के प्रति बहुत आदर, भक्ति और अर्पणता होती है। आत्मा गुण का ही पिण्ड है; इसलिए उसे गुण ही रुचते हैं और ऐसे गुणीजनों के प्रति बहुत आदरभाव आता है। लोग भी अवगुण को निन्दते हैं और गुण की प्रशंसा करते हैं। वीतराग के गुण का आदर करके मुमुक्षु स्वयं अपने में वैसे गुण प्रगट करना चाहता है । इस प्रकार विविध प्रकार से सन्तों के वचन में से आत्महित की प्रेरणा लेकर, आत्मा के भाव अच्छे रखना । अच्छे भाव का अच्छा फल आता ही है। वास्तव में ज्ञानी सन्तों की वाणी, मुमुक्षु जीव को अपूर्व शान्ति देनेवाली है ।
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