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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
वैसे वर्तन करना । धर्म में चित्त पिरोकर समाधान रखना - यही सर्व प्रसङ्ग में श्रेष्ठ उपाय है।
★ जिसने शरीर धारण किया, उसे वह छोड़ना तो है ही; फिर किसी को छोटी उम्र में छूटे या किसी को बड़ी उम्र में छूटे; आत्मा तो अविनाशी है। चौथे काल में तो ऐसे वैराग्य के प्रसङ्ग बनने पर कितने ही जीव, मोक्ष को साधने के लिये दीक्षा लेकर वन में चले जाते थे। ऐसे प्रसङ्ग में तो अन्तर में उतरकर देह से भिन्न आत्मा का अनुभव कर लेने योग्य है।
★ आत्मा की वीरता, आत्मा की वास्तविक बहादुरी तो इसमें है कि अपने आत्मा को परभावों से भिन्न रखना । अन्दर की चैतन्य -चेतना को बाह्य भावों को स्पर्श नहीं करने देना, यही ज्ञायक की वीरता है
आतमराम अविनाशी आया एकला, ज्ञान और दर्शन है उसका रूप जो; बहिरभाव तो स्पर्शे नहीं आत्म को, सचमुच में वह ज्ञायक वीर गिनाये जो ॥
जिनेन्द्र भगवान की और उन्होंने बताये हुए आत्मा की महिमा लाना । मिथ्या देव- गुरु को मानने से तो जीव के भाव बिगड़ते हैं । सच्चे देव-गुरु धर्मात्मा का दृढ़ शरण लेकर आत्मा में आनन्द करना सीखना। जीव स्वयं आनन्दस्वरूप है, उसमें से आनन्द लेना । आत्मा में आनन्द है, इसलिए आत्मा में रुचि लगाना; संसार में तो कहीं रुचे ऐसा नहीं है । कहीं चित्त न लगता हो, तब भगवान के मन्दिर जाकर बैठना... भगवान के गुण का विचार करना कि अहो! ऐसी वीतराग मुद्रा ही शान्तिदायक है ।
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