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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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शान्तिदातार सन्त वाणी
★ उद्वेग से भरे हुए इस संसार में अनेकविध दुःख प्रसङ्ग में ज्ञानी सन्तों की वाणी जीव को कितनी शान्ति देती है, इसका अनुभव प्रत्येक जिज्ञासु जीव को होता है । आत्महित प्रेरक सन्त वाणी में वास्तव में शान्ति का झरना बहता है ।
★ वे सन्त कहते हैं कि संसार में चाहे जैसा कठोर प्रसङ्ग बने तो भी जीव को शान्ति रखना, वह कर्तव्य है । वीतरागी देव - शास्त्र - गुरु का स्वरूप विचारकर, उनकी भक्ति में, उनकी महिमा में बारम्बार उपयोग जोड़ना । संसार का दुःख प्रसङ्ग याद आवे कि तुरन्त ही उपयोग को देव - शास्त्र - गुरु की ओर पलट डालना । दुःख में आर्तध्यान और रुदन किया करने से तो उल्टे परिणाम बिगड़ते हैं और खोटे कर्म तथा खोटी गति बँधती है । इसलिए ऐसे विचार नहीं आने देकर आत्मा के हित के विचार करना; बलपूर्वक आत्मा को उसमें जोड़ना ।
★ सीताजी, अंजना इत्यादि धर्मात्माओं को कैसे प्रसङ्ग बने ! तथापि उस प्रतिकूलता में भी धीरज रखकर धर्म में अडिग रहे और देव-गुरु-धर्म की शरण ली। पूर्व में स्वयं ही पापकर्म बाँधा था, उसके उदय से प्रतिकूलता आयी परन्तु अब अभी ऐसे अच्छे भाव रखना कि फिर से ऐसे संयोग-वियोग ही न हो । स्वभाव की ऐसी भावना भाना कि फिर से संयोग ही न मिले। धर्मात्मा का सत्सङ्ग करना, उनकी कथा पड़ना, जैनधर्म की महिमा करना, भगवान के दर्शन-पूजन करना - ऐसे सर्व प्रकार से आत्महित हो,
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