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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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तीन रत्नों की कीमत समझिये
संसार में अनन्तानन्त जीवों में से असंख्यात जीव ही मनुष्य होते हैं, अर्थात् त्रिराशी के हिसाब से गिनने पर अनन्त जीवों में से मात्र एक जीव मनुष्य होता है। ऐसा दुर्लभ मनुष्यपना है । दृष्टिगोचर क्षेत्र में रहे हुए करोड़ों-अरबों मनुष्यों में भी बहु भाग मनुष्य तो माँस, मछली, अण्डा, शराब और शहद जैसे अभक्ष्य सेवन के पाप समुद्र में ऐसे डूबे हुए हैं कि जिन्हें धर्म के श्रवण जितने विशुद्ध परिणाम ही नहीं हैं ।
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अब शेष रहे हुए थोड़े-बहुत मनुष्यों में से भी बहु भाग को तो कुदेव - कुगुरु-कुधर्म के सेवन का ऐसा भूत लगा है कि किसी भी प्रकार की विवेकबुद्धि के बिना पागल की तरह चाहे जिस क्रिया में धर्म मनवा रहे हैं । अरे रे ! ये जीव मनुष्यपना तो पाये परन्तु इन्हें पंच परमेष्ठी भगवान का नाम भी सुनने को नहीं मिला, गृहीतमिथ्यात्व के भूत ने इन्हें भरमाया है। धन्य है जगत में पंच परमेष्ठी भगवन्त, कि जिनकी भक्तिरूप मन्त्र के प्रभाव से गृहीतमिथ्यात्व का भूत आत्मा के समीप भी नहीं आ सकता ।
प्रिय साधर्मीबन्धुओं ! जगत में अनेकविध कुधर्म तो सदा ही रहनेवाले ही हैं। क्योंकि नरकादि गति भी सदा ही भरी ही रहनेवाली है। अपने को ऐसे कुधर्मों के साथ कोई वास्ता नहीं परन्तु कुधर्म के समुद्र के बीच भी अपने को भवसमुद्र से तिराकर आत्मा का आनन्द देनेवाले जो तीन रत्न मिले हैं, वे जगत में सर्वश्रेष्ठ हैं । अपने को प्राप्त इन वीतरागी रत्नों को हम पहचाने... जीव की तरह
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