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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
समयसार के श्रोता को.... आशीर्वाद
सोलहवीं बार प्रवचन के प्रारम्भ में समयसार की महिमा करते हुये गुरुदेव ने कहा था कि हे भव्य! तू अपूर्व भाव से समयसार सुनना। शुद्धात्मा का अनुभव करनेवाले सन्तों के हृदय
में से निकला हुआ यह शास्त्र, शुद्धात्मा का अनुभव कराकर भव का नाश करानेवाला है... आत्मा के अशरीरीभाव को दर्शानेवाला यह शास्त्र है। हे श्रोता! तू सावधान होकर (अर्थात् कि भावश्रुत को अन्तर में एकाग्र करके) सुन... इससे तेरा मोह नष्ट हो जायेगा और तू परमात्मा हो जायेगा। इस शास्त्र की कथनी में से धर्मात्मा, शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। शुद्ध आत्मा का अनुभव करना, यह इस शास्त्र का तात्पर्य है। ऐसे शुद्धात्मा को ध्येयरूप स्थापित कर उसे नमस्काररूप मोक्ष के मंगल स्तम्भ रोपे हैं।
इस शास्त्र में दर्शाया हुआ जो शुद्ध ज्ञायकभाव, उसके घोलन द्वारा आत्मा की परिणति अत्यन्त शुद्ध होगी। बीच में विकल्प आवे, उसके ऊपर या वाणी के ऊपर लक्ष्य मत रखना, परन्तु उसके वाच्यरूप जो ज्ञायकभाव है, उस पर लक्ष्य रखना - उस
ओर ज्ञान को एकाग्र करना। राग का उत्साह रखना नहीं, ज्ञायकस्वभाव का ही उत्साह रखना। ज्ञायकभाव के प्रेम से तुझे परम सुख होगा - ऐसे आशीर्वादपूर्वक समयसार सुनाते हैं।
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