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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
हैं, तथापि दोनों के बीच भावभेदरूप (लक्षणभेदरूप) बड़ी दरार है। इस राग का स्वाद आकुलतारूप - दुःखरूप है और ज्ञान का स्वाद तो शान्त–सुखरूप है। ऐसे विवेक द्वारा दोनों के स्वाद की भिन्नता ज्ञात होती है। तीक्ष्ण प्रज्ञा के द्वारा उन दोनों को अत्यन्त भिन्न जानकर, वह प्रज्ञा शुद्धस्वरूप में प्रवेश कर उसे अनुभव में लेती है और रागादि को भिन्न कर डालती है ।
तीक्ष्ण प्रज्ञा-तीक्ष्ण ज्ञान अर्थात् राग से घिराये नहीं ऐसी चेतना; वह अन्तर के चैतन्यस्वभाव में प्रवेश कर जाती है; अत्यन्त सावधानी द्वारा- उपयोग की जागृति द्वारा अन्दर की सूक्ष्म सन्धि को भेदकर, एक ओर ज्ञानस्वरूप आत्मा और दूसरी ओर अज्ञानरूप बन्धभाव, इन्हें सर्वथा भिन्न कर डालती है । बन्धभाव के किसी अंश को ज्ञान में रहने नहीं देती और ज्ञान के किसी अंश को बन्धभाव में मिलती नहीं - ऐसी भगवती ज्ञानचेतना, वह मोक्ष का साधन है।
यद्यपि रागादि अशुद्धभाव जीव की पर्याय में परिणमते हैंजहाँ जीव है, वहाँ ही रागादि हैं; इसलिए उनसे भिन्न ऐसे शुद्धजीव का अनुभव सामान्य जीवों को कठिन है - बहुत सूक्ष्म है, तथापि निपुण पुरुष अन्तर की सूक्ष्म ज्ञानचेतना द्वारा स्वभाव और विभाव के बीच का भेद जानकर, उनकी भिन्नता का अनुभव करते हैं क्योंकि दोनों के बीच लक्षणभेद की दरार है। स्थूल ज्ञान से अज्ञानी को वह दरार दिखायी नहीं देती परन्तु ज्ञान की अन्तर एकाग्रता द्वारा उन दोनों की सन्धि जानकर, ज्ञान अपने स्वभाव में एकाग्र होता है। एकाग्र होते ही दोनों स्पष्ट भिन्न पृथक् अनुभव में आते हैं; ज्ञान का अनुभव हुआ, उस अनुभव में राग की सर्वथा नास्ति है । प्रथम ऐसी भिन्नता अनुभव में आने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान
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