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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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के बीच सन्धि है-साँध है, लक्षणभेद है। एक क्षेत्र में होने पर भी, दोनों एक स्वभाव नहीं हैं, दोनों के स्वभाव के बीच महान अन्तर है। वह अन्तर लक्ष्य में लेकर प्रज्ञाछैनी ऐसी पड़ती है कि अशुद्धता
को एक ओर करके, शुद्ध चेतना वस्तु में स्वयं एकाग्र होता है - इसका नाम भेदज्ञान और यह मोक्षमार्ग।
बन्धन का स्वरूप, बन्धन से छूटने का उपाय – इन सबका मात्र विचार किया करे-विकल्प किया करे, इससे कहीं बन्धन नहीं छूटता। बन्ध से भिन्न शुद्धात्मा को जानकर, उसमें ज्ञान को एकाग्र करने से बन्धभाव छूट जाते हैं। इसके लिए उपयोग में सावधानी चाहिए। रभसात् अर्थात् शीघ्रता से प्रज्ञाछैनी पड़ती हैऐसा कहकर पुरुषार्थ की तीव्रता बतलायी है। ऐसा भेदज्ञान करे, उस जीव को निपुण कहा है। बाकी बाहर के जानपने में निपुणता बतावे और अन्दर में राग से भिन्न शुद्धात्मा का अनुभव करना यदि न आवे तो उसे निपुण नहीं कहते, वह ठोठ है; आत्मा को बन्धन से छुड़ाने की विद्या उसे नहीं आती है।
भाई! आत्मा का शुद्धस्वभाव और अशुद्धतारूप बन्ध, ये दोनों एकमेक नहीं होते परन्तु बीच में लक्षणभेदरूप सन्धि है। अर्थात् दोनों को भिन्न अनुभव किया जा सकता है, सूक्ष्म प्रज्ञाछैनी द्वारा उन्हें पृथक् किया जा सकता है। आत्मा और बन्ध, दोनों ऐसे एकमेक नहीं हो गये हैं कि बीच में प्रज्ञाछैनी प्रवेश न कर सके; दोनों के बीच का भेद, ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। भेदज्ञान द्वारा दोनों को भेदा जा सकता है।
जितने क्षेत्र में चैतन्यवस्तु है, उतने ही क्षेत्र में रागादि बन्धभाव
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