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________________ www.vitragvani.com 90] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 * राग और पुण्य मेरे, उनसे मुझे सुख मिलेगा-ऐसा जो राग का सेवन है, वह सिद्धान्त का अनादर है। सिद्धान्त ने आत्मा का परमार्थस्वभाव दिखलाया है; उस स्वभाव का सेवन वह स्वसन्मुख पर्याय है, वही धर्मात्मा का आचरण है... उसमें ही परम अतीन्द्रियसुख का वेदन है। ___ जीव ने अनादि से विकारी परभावों का ही सेवन किया है, उसे ही अपनेरूप अनुभव किया है। उसमें एक क्षण भी यदि भंग करे तो स्वभावसन्मुखता हो जाये। जैसे अज्ञान से निरन्तर राग को अनुभव किया, वैसे अब 'रागादि मैं नहीं, मैं तो शुद्ध चैतन्यभाव ही हूँ'-ऐसा निरन्तर शुद्ध आत्मा का सेवन करो, उसे ही अपनेरूप अनुभव में लो – ऐसा अनुभव ही मोक्ष का कारण है, वही मोक्षार्थी जीव को करने का कार्य है; इसके अतिरिक्त पुण्य या पुण्य के फलरूप भोग, संसार, या शरीर—उनकी अभिलाषा मोक्षार्थी धर्मात्मा को नहीं है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ऐसा जीवद्रव्य मैं हूँ, शुद्धज्ञान प्रकाशमय मैं हूँ, अतीन्द्रियसुख, वह मैं हूँ - ऐसा श्रद्धा, ज्ञान अनुभव धर्मी करता है। धर्मी के ऐसे कार्य के साथ रागादि अशुद्धभाव अनमेल है, शुद्धस्वरूप को रागादि के साथ मेल नहीं-मिलन नहीं-एकता नहीं, परन्तु भिन्नता है। जितने रागादि भाव हैं, वे सभी शुद्ध चैतन्य के अनुभव से पर हैं; अपने स्वरूपरूप नहीं अनुभव में आते, इसलिए हे मोक्षार्थी जीवों! तुम प्रज्ञा द्वारा शुद्धस्वरूप का अनुभव करो। भगवती चेतना कहो या प्रज्ञाछैनी कहो, उसके द्वारा बन्धन से भिन्न शुद्ध आत्मा अनुभव में आता है। शुद्ध आत्मा चेतनामात्र वस्तु है, उसमें राग-द्वेष मोहादि अशुद्धभाव एकमेक नहीं, परन्तु दोनों Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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