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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
हे जीव! प्रज्ञा द्वारा मोक्षपंथ में आ! "
प्रज्ञा अर्थात् शुद्धात्मसन्मुख झुकी हुई भगवती चेतना। भगवती प्रज्ञा द्वारा भेदज्ञान कराकर मोक्षमार्ग खोलनेवाला यह आनन्ददायी कलश जब-जब गुरुदेव के श्रीमुख से सुनते हैं, तब ऐसी 'ज्ञानचेतना' के पुरुषार्थ की तीव्र प्रेरणा जागती है... और मानो कि आचार्य भगवन्त..... मोक्ष के मार्ग में बुला रहे हों, ऐसा आत्मा उल्लसित हो जाता है। (समयसार कलश 181 के प्रवचन में से)
अनादि से बन्धन में बँधे हुए आत्मा को किस प्रकार छुड़ाना? छुटकारे का साधन क्या? वह विधि इस कलश में बतलाते हैं। भेदज्ञान के लिए यह अलौकिक श्लोक है। आत्मा को बन्धन से छूटने का साधन, आत्मा में है; आत्मा से भिन्न दूसरा कोई साधन नहीं है। आत्मा क्या और बन्ध क्या-इन दोनों के भिन्न लक्षण को पहचानकर जो चेतना, आत्मस्वभाव सन्मुख झुकी, वह भगवती चेतना ही बन्धन से छूटने का (अर्थात् मोक्ष का) साधन है। रागादि बन्धभाव तो आत्मस्वभाव से भिन्न हैं; वे कोई भी रागभाव, आत्मा को मोक्ष का कारण नहीं होते, उन रागभावों को तो आत्मा से भिन्न करना है। राग से भिन्न ऐसी जो चेतना (जो कि आत्मा का स्वलक्षण है), उसके द्वारा ही बन्धन से भिन्न आत्मा अनुभव में आता है; इस प्रकार चेतनारूप भगवती प्रज्ञा ही मोक्ष का कारण है। जीव का अपना शुद्धस्वरूप से परिणमना और वैसा परिणमन होने पर, कर्म का सम्बन्ध छूट जाना, इसका नाम मोक्ष है । मोह-रागद्वेषादि अशुद्धपरिणतिरूप परिणमन होना और कर्म का सम्बन्ध
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