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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [39 उत्तर : अन्तर में उपयोग लगाकर आत्मा को जानने से अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आवे, ऐसा अपूर्व स्वाद आवे कि पूर्व में कभी आया नहीं था परन्तु वह कहीं बातें करने से हो - ऐसा नहीं है, उसके लिये तो अन्तर का कोई अपूर्व पुरुषार्थ चाहिए। प्रश्न : वांचन-श्रवण बहुत करने पर भी अनुभव क्यों नहीं होता? उत्तर : अन्दर में वैसा यथार्थ कारण नहीं देता इसलिए; यदि यथार्थ कारण दे तो कार्य हो ही।अन्तर की धगश से विचारणा जगे और स्वभाव की ओर का प्रयत्न करे तो आत्मा का कार्य न हो - ऐसा नहीं हो सकता। प्रयत्न करे राग का, और कार्य चाहे स्वभाव का - यह कहाँ से आये ? स्वभाव की ओर का प्रयत्न करे तो स्वभाव का कार्य (सम्यग्दर्शन) अवश्य प्रगट हो। इसके लिए अन्दर का गहरा प्रयत्न चाहिए। प्रश्न : संसार अर्थात् क्या? उत्तर : अपना जो शुद्धस्वरूप है, उससे संसरणा, अर्थात् च्युत होकर अशुद्धरूप परिणमित होना, वह संसार है, अर्थात् राग-द्वेष -अज्ञान इत्यादि मलिनभाव, वह संसार है। प्रश्न : संसार कहाँ है? उत्तर : जीव का मोक्ष और संसार दोनों जीव में ही है; जीव से बाहर नहीं। जीव की अशुद्धता ही जीव का संसार है, बाहर के संयोग में जीव का संसार नहीं है; इसी प्रकार जीव की शुद्धतारूप मोक्ष भी जीव में ही है और उस मोक्ष का उपाय भी जीव में ही है। प्रश्न : संसार कौन सा भाव है? Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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