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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
उत्तर : संसार उदयभाव है। प्रश्न : धर्म अर्थात् क्या?
उत्तर : धर्म अर्थात् आत्मा की शुद्धता। आत्मा क्या चीज है - उसके स्वभाव का भान करके, उसमें एकाग्रता द्वारा जो रागद्वेषरहित शुद्धता प्रगट होती है, वह धर्म है। प्रश्न : सामायिक की आवश्यकता है या नहीं?
उत्तर : एक समय की सामायिक, आत्मा में मुक्ति की झंकार देती है। सामायिक पाँचवें गुणस्थान में होती है और उसके पहले चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होता है। सम्यक्त्व के बिना, अर्थात् आत्मा के भान बिना सच्ची सामायिक नहीं होती है। देह की क्रिया को या शुभराग को सामायिक माने अथवा उनसे धर्म माने तो उसे सामायिक का पता नहीं है। स्वरूप का ध्यान करके उसमें एकाग्र रहने से राग-द्वेषरहित समभाव और अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन प्रगट हो, उसका नाम सामायिक है।।
प्रश्न : ऐसी सामायिक न हो, तब तक तो शुभभाव करना न?
उत्तर : भाई ! राग तो अनादि से करता ही आया है। यह तो जिसे धर्म करना है, उसके लिये बात है। धर्म के लिये सत् विचारों को अन्तर में लगाना चाहिए। पहले सम्यक् भूमिका तो निश्चित करो। ऐसा मनुष्य अवतार मिला, उसमें जन्म-मरण के चक्कर मिटें, ऐसी अपूर्व चीज क्या है ? वह समझना चाहिए। पश्चात् समझ के प्रयत्न की भूमिका में भी ऊँची जाति का शुभभाव तो होता है परन्तु उस राग से चैतन्य की भिन्नता जब तक भासित न हो, तब तक धर्म की शुरुआत नहीं होती; शुभभाव की बात तो
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