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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [33 ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा की सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और उसमें लीनतारूप धर्म, वही जीवों को शरणभूत है। उस धर्म के अतिरिक्त दूसरा कोई शरण नहीं है। स्वर्ग के इन्द्र को भी चैतन्य की शरण के अतिरिक्त दूसरा कोई शरण नहीं है। चारों ओर हजारों देवों की सेना अङ्गरक्षकरूप से खड़ी हों, वह भी मरण के समय शरण नहीं होती। वह इन्द्र तो सम्यग्दृष्टि है, एकावतारी होता है, अन्तर में आत्मा की शरण का उसे भान है; देह छूटने का प्रसङ्ग नजदीक आने पर शाश्वत् जिनप्रतिमा की शरण में जाकर उनके चरणकमल पर हाथ रखकर कहता है कि हे नाथ! हे सर्वज्ञदेव! आपके द्वारा कथित वीतरागी धर्म की ही मुझे शरण है । हे प्रभु! सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो है, अब मनुष्यभव में चारित्र की आराधना करके मैं भी भवभ्रमण का नाश करूँगा... इस प्रकार आराधना की भावना भाते-भाते शान्ति से देह छूट जाती है और मनुष्यभव में अवतरित होता है, वहाँ चैतन्य के प्रति दृष्टि लगाकर... लीन होकर... नग्न-दिगम्बर मुनिदशा धारण करता है और पश्चात् अन्तर में ऐसी ध्यान की एकाग्रता प्रगट करता है कि अल्प काल में केवलज्ञान प्राप्त करता है। अनन्त तीर्थङ्कर, इन्द्र, चक्रवर्ती इस चैतन्य की शरण को ही अङ्गीकार करके मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। इसलिए उसका भान करके उसका ही शरण लेने योग्य है। वह एक ही मृत्यु से बचने का और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय है। अपूर्व सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् भी, आत्मा में लीन होकर चारित्रदशा प्रगट करना, वह मोक्ष का साक्षात् कारण है; इसलिए प्रवचनसार श्लोक १२ में आचार्य भगवान कहते हैं कि - हे धर्मी जीवो! हे मोक्षार्थी जीवो! यदि आत्मा की शान्ति चाहिए हो और भव के चक्कर से छूटना हो तो शुद्धद्रव्य का आश्रय Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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