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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
ज्ञानी की पहचान (२) (समयसार गाथा ७६ से ७९ के भेदज्ञानप्रेरक अद्भुत प्रवचनों से)
सन्त कहते हैं कि हम ज्ञानी का जो अन्तरङ्ग चिह्न बतलाते हैं, उस अन्तरङ्ग चिह्न द्वारा जो ज्ञानी को पहचानता है, उस जीव को अवश्य भेदज्ञान होता है।
जो जीव, भेदज्ञान करके राग से भिन्न निर्मल परिणामरूप परिणमित हुआ है, वह ज्ञानी जीव अपने निर्मल सम्यग्दर्शनादि परिणाम को नि:शङ्क जानता है। सम्यग्दर्शन हो और पता नहीं पड़े - ऐसा नहीं होता है। धर्मी जीव अपने निर्मल परिणाम को तथा रागादि को भी जानता है परन्तु जब राग को जानने की ओर उपयोग हो, तब उस राग का कर्ता होता होगा! ऐसी शङ्का नहीं करना। राग को जानने पर भी वह उसका कर्ता नहीं है, क्योंकि राग के साथ उपयोग को एकमेक नहीं करते और राग को उपयोग में प्रवेश नहीं होने देते।
धर्मी, राग को जाने और निर्मल परिणाम को भी जाने परन्तु उसमें इतना अन्तर है कि राग को जानते हुए उसके साथ कर्ता -कर्मपना नहीं है और निर्मल परिणाम को जानते हुए उसके साथ कर्ता-कर्मपना है, अर्थात् राग को तो परज्ञेयरूप से जानते हुए उसके अकर्ता रहते हैं और निर्मल परिणाम को स्वज्ञेयरूप से जानते हुए उसके साथ कर्ता-कर्मरूप प्रवर्तते हैं। जहाँ राग को शुद्ध स्वज्ञेय से भिन्न जाना, वहाँ राग की ओर के पुरुषार्थ का जोर टूट गया और स्वज्ञेय-सन्मुख पुरुषार्थ ढला। देखो! यह ज्ञानी को पहचानने की विधि कही जाती है।
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