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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
राग और ज्ञान का भेद डालकर, जहाँ स्वभाव - सन्मुख झुका वहाँ निर्मल परिणामरूप कार्य और उसका ज्ञान दोनों साथ ही वर्तते हैं । निर्मल परिणाम हो और उसे न जाने - ऐसा नहीं होता तथा भेदज्ञान हो और निर्मल परिणति न हो - ऐसा भी नहीं होता । भेदज्ञान का होना और आस्रवों का छूटना, अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलता का प्रगट होना - इसका एक ही काल है। ज्ञान अन्धा नहीं है कि अपने निर्मल कार्य को न जाने । 'हमें श्रद्धा - ज्ञान हुए हैं या नहीं इसका पता नहीं परन्तु चारित्र करने लगो' - ऐसा कोई कहता है - परन्तु भाई ! तेरे श्रद्धा - ज्ञान का अभी ठिकाना नहीं है, किस ओर जाना है, इसका पता नहीं है, मार्ग को निहारा नहीं है तो अन्धे-अन्धे तू किस मार्ग पर जायेगा ? मोक्षमार्ग के बदले अज्ञान से बन्धमार्ग में ही चला जायेगा । सम्यग्दर्शन हो, वहाँ स्वयं को पता पड़ता है कि मार्ग खुल गया... स्वभाव श्रद्धा में आया अनुभव में आया और अब इस स्वभाव को ही मुझे साधना है । इस स्वभाव में ही मुझे एकाग्र होना है - ऐसा दृढ़ निश्चय हुआ । ऐसे निश्चय के बिना मार्ग की शुरुआत भी नहीं होती ।
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द्रव्य-गुण और उसके आश्रय से प्रगट हुई निर्मल परिणति ये तीनों एकाकार सुखरूप है, निर्विकार है । इसमें दुःख नहीं, इसमें विकार का कर्तृत्व या हर्ष - शोक का भोक्तृत्व नहीं है। आहा ! ज्ञानी को अपने निर्मल आनन्द का ही भोग है, हर्ष - शोक का वेदन स्वभाव में से नहीं आता; इसलिए स्वभावदृष्टि में ज्ञानी उसके भोक्ता नहीं हैं । निर्मल परिणति में कर्मफल का अभाव है, निर्मल परिणति में तो स्वाभाविक आनन्द का ही वेदन है । जो हर्षशोक की वृत्ति है, वह धर्मी आत्मा का कार्य नहीं है; धर्मी का उसका द्रव्य - गुण या निर्मल पर्याय, उस विकार का
आत्मा
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