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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
कर्तापने नहीं परन्तु ज्ञातापने ही परिणमते हैं। ज्ञान परिणाम तो अन्तर्मुख स्वभाव के आश्रय से हुए हैं और राग परिणाम तो बहिर्मुख झुकाव से-पुद्गल के आश्रय से हुए हैं। आत्मा के आश्रय से हुए, उसे ही आत्मा का परिणाम कहा और पुद्गल के आश्रय से हुए, उन्हें पुद्गल के ही परिणाम कह दिया है। राग की उत्पत्ति आत्मा के आश्रय से नहीं होती; इसलिए राग, आत्मा का कार्य नहीं है। ऐसे आत्मा को जानता हुआ, ज्ञानी अपने निर्मल परिणाम को ही करता है, उसके परिणाम का प्रवाह चैतन्यस्वभाव की ओर बहता है; राग की ओर उसका प्रवाह नहीं बहता है।
निर्मल परिणामरूप से परिणमित आत्मा, राग में तन्मयरूप परिणमित नहीं होता। जैसे घड़े में सर्वत्र मिट्टी तन्मय है; उसी प्रकार किसी राग में ज्ञानी का परिणाम तन्मय नहीं है। ज्ञानी के परिणमन में तो अध्यात्मरस की रेलमठेल है। चैतन्य के स्वच्छ महल में रागरूप मेल कैसे आवे? ज्ञानी, राग से पृथक् का पृथक् रहकर, अपनी निर्मलपर्याय को तन्मयरूप से जानता है। द्रव्यगुण और उसके आश्रय से उत्पन्न होनेवाली निर्मलपर्याय – इन सबको एकाकाररूप से ज्ञानी जानता है और राग से अपने को भिन्नरूप जानता है। भेदज्ञान द्वारा झटक-झटककर राग को चैतन्य से अत्यन्त भिन्न कर डाला है। कैसा भिन्न? कि जैसे परद्रव्य भिन्न हैं, वैसा ही राग भी चैतन्य से भिन्न है। ऐसे भेदज्ञान के बिना साधकपना होता ही नहीं। चैतन्य को और राग को स्पष्ट भिन्न जाने बिना किसे साधना और किसे छोड़ना – इसका निर्णय कहाँ से करेगा? और इसके निर्णय बिना साधकपने का पुरुषार्थ कहाँ से होगा? भेदज्ञान द्वारा दृढ़ निर्णय के जोर बिना साधकपने का चैतन्य की ओर का पुरुषार्थ शुरु ही नहीं होता।.
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