________________
14]
www.vitragvani.com
[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
सम्यग्दर्शन का उपदेश
प्रश्न : आप तो सम्यग्दर्शन पर ही बहुत वजन देते हो और उसके बिना सब व्यर्थ है - ऐसा कहते हो परन्तु जब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त न करें, तब तक शुभभाव के आदर का उपदेश क्यों नहीं देते हो ?
I
उत्तर : भाई ! अनादि काल के भवभ्रमण का अन्त कैसे आवे और आत्मा की मुक्ति कैसे हो ? - उसके उपाय का यह उपदेश है और उसकी शुरुआत तो सम्यग्दर्शन से ही होती है । अशुभ तथा शुभ, ये दोनों प्रकार के भाव तो जीव, अनादि काल से उपदेश बिना भी करता ही आया है परन्तु उससे कोई भव-भ्रमण का अन्त नहीं आता है, इसलिए उन पर क्या वजन देना ? सम्यग्दर्शन न हो तो इसे सम्यग्दर्शन का प्रयत्न करना परन्तु राग को तो धर्म मानना ही नहीं। राग को धर्म मानना तो मिथ्यात्वरूप जहर का सेवन है । इसलिए जिसे भव से छूटना हो, उसके लिये तो पहले सम्यग्दर्शन काही उपदेश है और,
जिज्ञासु जीव को सम्यग्दर्शन का अपूर्व उपाय समझने पर, उसका बहुमान करते-करते और उसका प्रयत्न करते-करते अशुभभाव टलकर उत्कृष्ट प्रकार के शुभभाव तो सहज हो जाते हैं, इसलिए वे तो गौणरूप से बीच में आ ही जाते हैं । जैसे अनाज पकने पर घास भी साथ में पक जाती है परन्तु किसान का प्रयत्न अनाज के लिये है, घास के लिये नहीं; इसी प्रकार सम्यग्दर्शन इत्यादि को साधते-साधते बीच की भूमिका में देव-गुरु का बहुमान,
1
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.