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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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उसकी परिणति, स्वभावसन्मुख झुक जाती है और राग टूटकर निर्विकल्प अनुभव होता है। पहले राग था, उसका कहीं यह फल नहीं है परन्तु अन्दर स्वभाव की ओर का जोर था, उसका यह फल है। यद्यपि उसका यह फल कहना, वह भी व्यवहार है । वस्तुतः तो उस सम्यग्दर्शन के समय का प्रयत्न अलग ही है परन्तु यहाँ सम्यग्दर्शन के पहले की दशा में जो विशेषता है, वह बतलानी है, इसलिए ऐसा कहा है ।
राग की ओर का जोर टूटने लगा और स्वभाव की ओर का जोर बढ़ने लगा, वहाँ (सविकल्पदशा होने पर भी ) अकेला राग ही काम नहीं करता, परन्तु राग के अवलम्बनरहित, स्वभावसन्मुख के जोरवाला एक भाव भी वहाँ काम करता है और उसके जोर से आगे बढ़ते-बढ़ते पुरुषार्थ का कोई अपूर्व धड़ाका करके निर्विकल्प आनन्द के वेदनसहित सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जाता है।
एक बार ऐसा निर्विकल्प अनुभव हो जाने के बाद ज्ञानी को वापस विकल्प भी आता है और विकल्प के समय निश्चयनय का उपयोग नहीं होता; तथापि उस समय भी उस ज्ञानी को ज्ञान का प्रमाणरूप परिणमन- सम्यग्ज्ञानपना-भेदज्ञान तो निरन्तर वर्त ही रहा है, तथा दृष्टि तो निश्चयनय के विषयरूप शुद्ध आत्मा पर ही सदा पड़ी है। अब उसे जो विकल्प उठता है, वह पहले के समान नहीं है। पहले अज्ञानदशा में तो उस विकल्प के साथ ही एकता मानकर वहीं अटक जाता था और अब भेदज्ञानदशा में तो उस विकल्प को अपने स्वभाव से पृथक् ही जानता है; इसलिए उसमें अटकना नहीं होता परन्तु शुद्धस्वभाव की ओर ही जोर रहता है । ऐसी साधक जीव की परिणति होती है । •
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