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________________ www.vitragvani.com 10] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 एकान्त पर को ही जानता है, पर से भिन्न स्वतत्त्व का उसे पता ही नहीं; इसलिए परसन्मुख उपयोग से पर को जानता हुआ वह पर के साथ ही ज्ञान की एकता मानता है; इसलिए उसका ज्ञान ही खोटा है; ज्ञानी को जगत् के किसी भी ज्ञेय को जानते समय प्रमाणज्ञान साथ का साथ ही वर्तता है, इसलिए उसे सम्यग्ज्ञान का परिणमन सदा प्रवर्तित रहा करता है। इस प्रकार अज्ञानी को तो अकेला परसन्मुख का उपयोग और अधर्म ही है; ज्ञानी को परसन्मुख के उपयोग के समय, साथ में आंशिक शुद्धतारूप धर्म भी है। प्रश्न : स्वसन्मुख उपयोग कब होता है? उत्तर : अज्ञानी को तो स्वसन्मुख उपयोग होता ही नहीं; समस्त ज्ञानियों को एक बार तो निर्विकल्प अनुभूति के समय स्वसन्मुख का उपयोग हो ही गया होता है; तत्पश्चात् चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान में परसन्मुख उपयोग होता है। चौथे, पाँचवें गुणस्थान में कभी-कभी उपयोग स्व में स्थिर हो जाने पर निर्विकल्प आनन्द की विशिष्ट अनुभूति होती है; मुनिवरों को तो उपयोग बारम्बार स्व में ढला ही करता है। एक साथ अन्तर्मुहूर्त से अधिक दीर्घ काल तक उनका उपयोग पर में नहीं रहता। सातवें और वहाँ से आगे के गुणस्थानों में तो उपयोग की स्व में ही एकाग्रता होती है। साधक का उपयोग एक साथ दीर्घ काल तक स्व में विशेष जमे तो शुक्लध्यान की श्रेणी माँढकर तुरन्त ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। मुनिदशा में तो बहुत थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में उपयोग स्वसन्मुख होकर बारम्बार निर्विकल्प आनन्द का अनुभव हुआ Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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