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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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करता है; जबकि चौथे-पाँचवें गुणस्थान में वह कभी होता है। उसे विशेष अन्तर पड़ता है और किसी समय तुरन्त हो जाता है।
प्रश्न : सविकल्पदशा में निश्चयनय होता है ?
उत्तर : निश्चयनय का उपयोग शुद्ध आत्मा को ही ध्येय बनाकर जब उसमें स्थिर हो जाता है, तब निर्विकल्पता ही हो जाती है; इसलिए वस्तुतः तो निश्चयनय के समय निर्विकल्पदशा ही होती है।
ऐसा होने पर भी, शुद्धस्वभाव के सन्मुख ढलते उपयोग को सविकल्पदशा में भी कहीं-कहीं निश्चयनय के रूप में कहा गया है। वहाँ वह उपयोग, शुद्धस्वभाव के सन्मुख झुकता जाता है... वह आगे बढ़ते-बढ़ते विकल्प तोड़कर अभेद द्रव्य को पहुँच जायेगा और निर्विकल्प अनुभूति में स्थिर हो जायेगा - इस अपेक्षा से सविकल्पदशा के समय भी उपयोग को उपचार से निश्चयनय कहा है। सविकल्प होने पर भी, परिणति का झुकाव, आत्मा की
ओर ही ढल रह है - ऐसा यह उपचार बतलाता है। ___ अभेद द्रव्य की अनुभूति की ओर जिसका झुकाव नहीं, वहाँ तक जो नहीं पहुँचता, उस जीव के शुद्धस्वभाव सम्बन्धी सविकल्प चिन्तन को निश्चयनय नहीं कहा जा सकता - उपचार से भी नहीं कहा जा सकता। उसे निश्चयनय का विकल्प है-मात्र राग ही है परन्तु निश्चय 'नय' उसे नहीं है। ___ जीव को शुद्धनय का निश्चयनय का 'पक्ष' भी पूर्व में कभी नहीं आया - ऐसा कहकर उसमें जो निश्चयनय के पक्ष की भी अपूर्वता बतलायी है, वह तो स्वभावसन्मुख झुक रहे जीव की बात
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