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________________ www.vitragvani.com 192] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 उस पूर्ण ज्ञानस्वभाव का निर्णय करके उसमें एकाग्रतारूपी घिसावट | लीनता करने से पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है। जहाँ ज्ञानस्वभाव भरा है, उसमें से ज्ञान प्रगट होता है; किसी संयोग में से ज्ञान नहीं आता। शरीरादि अचेतन हैं, उनमें से ज्ञान नहीं आता। मैं पर का कर्ता तो नहीं हूँ ही, नव तत्त्व के विकल्प का भी मैं कर्ता नहीं हूँ; मैं तो पूर्ण ज्ञायक हूँ। इस प्रकार अपने अन्तरस्वभाव का निर्णय करके, उसमें एकाग्र होना, वह धर्म है। __ आत्मा के अन्तरस्वभाव की दृष्टि करने पर उसमें एक ज्ञायकमूर्ति जीव ही भूतार्थरूप से प्रकाशमान है, नव तत्त्वों के विकल्प उसमें नहीं हैं। भले ही साधक को नव तत्त्वों के विकल्प हों परन्तु उसकी दृष्टि तो अभेद स्वभाव में ही है। उस अभेदस्वभाव की ही मुख्यता में उसे ज्ञान की निर्मलता होती जाती है और राग -द्वेष का अभाव होता जाता है। विकल्प होने पर भी अभेदस्वभाव की दृष्टि में तो वे अभूतार्थ ही हैं। इस प्रकार शुद्धनय द्वारा एकरूप प्रकाशित शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है। ऐसे शुद्ध आत्मा की अनुभूति, वह आत्मप्रसिद्धि है और शुद्ध आत्मा की प्रसिद्धि, वह नियम से सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार यह सर्व कथन निर्दोष है, बाधारहित है। कोई कहता है 'सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में जाना होगा, तब आत्मा को धर्म होगा, अभी यह सब समझने से क्या काम है ?' तो ऐसा कहनेवाले की दृष्टि विपरीत है; उसे आत्मा के धर्म की रुचि नहीं है। ज्ञानी उससे कहते हैं कि अरे भाई! सर्वज्ञ भगवान ने सब देखा है और वैसा ही सब होता है' - इस प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान की Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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