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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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___ 'ज्ञायकस्वभाव, वही जीव है' - ऐसा कहने से उसमें ज्ञान की पूर्णता ही आती है। पर्याय में अल्पज्ञता हो, वह उसका स्वभाव नहीं है। अभी अवस्था में अल्प ज्ञान है परन्तु अवस्था में सदा अल्प ज्ञान ही रहा करे – ऐसा स्वभाव नहीं है। एक समय में पूर्ण ज्ञानरूप परिणमित होना ही उसका स्वभाव है तथा अवस्था में अल्पज्ञता के साथ जो रागादिक भाव हैं, वे भी वास्तविक जीवस्वभाव नहीं हैं। राग और अल्पज्ञता से रहित, एकरूप ज्ञायकभाव ही परमार्थ जीव है। ऐसे पूर्ण ज्ञायकस्वभावी आत्मा का निर्णय करके, उसमें एकाग्र होने पर पर्याय में अल्पज्ञता अथवा राग-द्वेष नहीं रहते हैं परन्तु सर्वज्ञता और वीतरागता हो जाती है। पहले तो ऐसे पूर्ण आत्मा को श्रद्धा में स्वीकार करने की यह बात है। स्वभाव कहना और फिर उसमें अपूर्णता कहना, तब तो वह स्वभाव ही नहीं रहता। स्वभाव कभी अपूर्ण नहीं होता और जो अपूर्ण हो, उसे स्वभाव नहीं कहते हैं।
जिस प्रकार छोटी पीपल के स्वभाव में चौसठ पहरी पूर्ण चरपराहट शक्तिरूप से विद्यमान है, उसमें से वह प्रगट होती है। यह छोटी पीपल ही है और इसमें से चरपराहट प्रगट होगी; इस प्रकार उसकी शक्ति का विश्वास करके, उसे घिसकर वह चरपराहट प्रगट करने का विकल्प आता है, किन्तु कङ्कर को घिसने का विकल्प नहीं आता है क्योंकि कङ्कर में चरपराहट प्रगट होने का स्वभाव नहीं है - ऐसा जाना है। जिसमें जो स्वभाव होता है, उसमें से ही वह प्रगट होता है संयोग में से नहीं आता। इसी प्रकार आत्मा का वह स्वभाव, ज्ञायकस्वभाव है, उसमें सर्वज्ञता की सामर्थ्य है,
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