SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [193 और वस्तु के स्वभाव की तू बात तो करता है परन्तु तुझे ज्ञान की महिमा तो आती नहीं है। हम पूछते हैं कि तू जो सर्वज्ञ की बात करता है, उस सर्वज्ञ का निर्णय तूने किस ज्ञान में किया है ? जिस ज्ञान में सर्वज्ञता का और वस्तु के स्वरूप का निर्णय करता है, वह ज्ञान, आत्मस्वभाव सन्मुख ढले बिना रहता ही नहीं और उसे वर्तमान में ही धर्म का प्रारम्भ हो जाता है तथा सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में भी ऐसा ही ज्ञात होता है। जिसने आत्मा की पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य को प्रतीति में लेकर उसमें एकता की है, उसे ही वास्तव में सर्वज्ञ के ज्ञान की प्रतीति हुई है। जो राग को अपना स्वरूप मानकर, राग का कर्ता होता है और रागरहित ज्ञानस्वभाव की जिसे श्रद्धा नहीं है, उसे सर्वज्ञ की भी वास्तविक मान्यता नहीं है; इसलिए सर्वज्ञ के निर्णय में ही ज्ञानस्वभाव के निर्णय का सम्यक् पुरुषार्थ आ जाता है। वही मोक्षसन्मुख का पुरुषार्थ है और वही धर्म है। लोगों को बाहर की धूमधाम दिखे, उसमें पुरुषार्थ लगता है परन्तु अन्तर में ज्ञानस्वभाव के निर्णय में ही ज्ञाता-दृष्टापने का और राग के अकर्तापने का सम्यक् पुरुषार्थ आ जाता है, उसे बहिर्दृष्टि लोग नहीं जानते हैं । वस्तुतः ज्ञायकपना ही आत्मा का पुरुषार्थ है, ज्ञायकपने से अलग दूसरा कोई सम्यक् पुरुषार्थ नहीं है। ___ जीव, जाननेवाला है; आत्मा, ज्ञायकस्वभावी है - ऐसा सम्यक् निर्णय किया, वही आत्मा की अन्तरक्रिया है, वही धार्मिकक्रिया है परन्तु बाहर की देहदृष्टि से देखनेवाले को यह बात ख्याल में नहीं आती है। अवस्था का पलटना, वह क्रिया है। मैं ज्ञायकस्वभाव Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy