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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
वे तो सब केवल जीव के ही विकार हैं। यहाँ मोक्षतत्त्व को भी जीव का विकार कहा है क्योंकि यहाँ सातों तत्त्व, विकल्परूप लिये हैं। पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - ऐसे सातों तत्त्वों के विकल्प, शुद्ध जीव के लक्ष्य से उत्पन्न नहीं होते, अपितु निमित्त कर्म के लक्ष्य से उत्पन्न होते हैं; इसलिए उन सातों तत्त्वों को यहाँ विकार कहा है। उन सात तत्त्वों के लक्ष्य से एकरूप चैतन्य आत्मा दृष्टि में अथवा अनुभव में नहीं आता है और एकाकार ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि में और अनुभव में सात तत्त्व के भङ्ग भेद के विकल्प उत्पन्न नहीं होते। ___ यद्यपि संवर, निर्जरा और मोक्ष तो आत्मा की निर्मल पर्यायें हैं परन्तु यहाँ तो उन तत्त्व सम्बन्धी विकल्प को ही संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्व गिनकर, उसे विकार कहा है। आत्मा में निर्मलपर्याय प्रगटी हो, उस पर्याय के लक्ष्य से भी राग की उत्पत्ति होती है
और उस राग में अजीव निमित्त है। संवर, निर्जरा और मोक्ष, वह आत्मा की निर्मलपर्याय है परन्तु उन तीनों पर्यायों का भेद करके, उनका आश्रय करने से विकार की ही उत्पत्ति होती है। उनके भेद विकल्प में चैतन्य की शान्ति उत्पन्न नहीं होती; इसलिए उन तत्त्वों को भी विकार कहा है। इसलिए उनके भेद का आश्रय छोड़कर, भूतार्थरूप अभेद स्वभाव का आश्रय करना चाहिए - यह इस कथन का उद्देश्य है।
जिसे शुद्धद्रव्य के आश्रय से संवरदशा उत्पन्न हुई है, उसकी दृष्टि उस संवरपर्याय पर नहीं होती है, अपितु अन्तर के अभेदस्वभाव पर उसकी दृष्टि होती है। उस अभेदस्वभाव की दृष्टि से ही संवर,
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