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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [181 निर्जरा प्रगट होते हैं; उस अभेद के आश्रय से ही संवर, निर्जरा टिकते हैं और उस अभेद के आश्रय से ही संवर, निर्जरा बढ़ते हैं। अभेदस्वभाव के आश्रय से ही मोक्षमार्ग है। संवर-निर्जरारूप पर्याय के लक्ष्य से संवर-निर्जरा प्रगट नहीं होते, नहीं टिकते और न ही वृद्धिगत होते हैं, अपितु उस पर्याय के लक्ष्य से तो राग की उत्पत्ति होती है; इसलिए एकरूप चैतन्यस्वभाव की दृष्टि और अनुभव के अतिरिक्त सात तत्त्व के विचार करना, वह विकार है। पुण्य-पाप इत्यादि सात तत्त्व, अकेले जीव की अवस्था में होते हैं और उसके हेतुभूत सात तत्त्व, अकेले अजीव की अवस्था में होते हैं। इस प्रकार जीव-अजीव का स्वतन्त्र परिणमन है। ___ जिसे ज्ञान में ऐसे जीवादि तत्त्वों का ख्याल न आवे, उसे निर्मल चैतन्यस्वभाव की दृष्टि नहीं होती। सात तत्त्वों में आत्मा की पर्याय और अजीव की पर्याय भिन्न-भिन्न है। अखण्डस्वभाव के अनुभव से सम्यग्दर्शन प्रगट होने के पश्चात् भी धर्मी को नव तत्त्व के विकार आते हैं परन्तु वे विकल्प एकत्वबुद्धिपूर्वक नहीं आते; इसलिए परमार्थ से तो वे ज्ञान के ज्ञेय हो जाते हैं। धर्मी को विकल्प का और ज्ञान का भिन्नपना वर्तता है।। ___ अभी श्रेणिक राजा नरक में हैं और आगामी चौबीसी में पहले तीर्थङ्कर होनेवाले हैं। उन्हें अनेक रानियों और राजपाट का संयोग होने पर भी अन्तर में ऐसे ज्ञायक चैतन्यतत्त्व का भान था। अस्थिरता से राग-द्वेष होने पर भी, उस क्षण भी चैतन्य ज्ञायक में ही एकता की दृष्टि थी; इसलिए प्रति क्षण धर्म होता था। भरत चक्रवर्ती को छह खण्ड के राज्य में भी ऐसा भान था। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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