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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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आत्मस्वभाव पहचाने तो अपने में धर्म का प्रारम्भ होता है। यह प्रथम सम्यग्दर्शनधर्म की बात चलती है, आत्मा के स्वभाव को पहचानने की बात चलती है। ____ आत्मा की समझ करने में अन्तर की धर्म क्रिया आती है। जड़ की क्रिया मुझसे होती है और शरीर की क्रिया से धर्म होता है - ऐसा मानना तो अज्ञान की क्रिया है। उस क्रिया से संसारभ्रमण होता है। आत्मा में सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव प्रगट हो, वही आत्मा की धर्मक्रिया है और उसी से मोक्षदशा प्रगट होती है - ऐसी धर्मक्रिया की यह बात चल रही है।
आत्मा तो ज्ञायक चैतन्यज्योति है, आनन्दकन्द निर्विकारी मूर्ति है - ऐसा जो ज्ञायकभाव, वही जीव है, उसमें नव तत्त्व के भेद नहीं हैं परन्तु उसकी अवस्था में अजीव वस्तु के लक्ष्य से सात भङ्ग पड़ते हैं, उसका निमित्त अजीव है। आत्मा चैतन्यज्योति है, वह तो शुद्ध जीव है, जबकि उस ज्ञायक चैतन्यस्वभाव का अनुभव न रहे, तब उसकी अवस्था में अजीव के निमित्त से सात भङ्ग पड़ते हैं और निमित्तरूप अजीव में भी सात भङ्ग पड़ते हैं। यहाँ जीव और अजीव को अलग रखकर उन दोनों में सात-सात भङ्ग बतलाते हैं। एक ओर शुद्ध जीव अलग रखा, सामने अजीव सिद्ध किया; जीव को स्वभाव से ज्ञायक सिद्ध किया और अजीव को विकार के हेतुरूप में बतलाया। अकेले जीवस्वभाव के लक्ष्य से वीतरागभाव की उत्पत्ति होती है और सात तत्त्व के लक्ष्य से तो रागरूप विकल्प की उत्पत्ति होती है - यह बतलाया।
ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि चूककर सात तत्त्व के भेद पड़ते हैं,
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