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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
भाव-बन्धन न हो तो आनन्द का प्रगट अनुभव होना चाहिए, परन्तु
आनन्द का प्रगट अनुभव नहीं है क्योंकि वह अपनी पर्याय में विकार के भावबन्धन से बँधा हुआ है। जैसे, स्फटिक के उज्ज्वल स्वच्छ स्वरूप में जो लाल-काली झाँई पड़ती है, वह उसका मूलस्वरूप नहीं है परन्तु स्फटिक का विकार है, उपाधि है। इसी प्रकार जीव का स्वच्छ चैतन्यस्वभाव है, उसकी अवस्था में जो पुण्य-पाप के भाव होते हैं, वह उसका मूलस्वरूप नहीं है; अपितु विकार है, बन्धन है।
विकारभाव, वह जीवबन्ध है और उसमें निमित्तरूप जड़कर्म है, वह अजीवबन्ध है; इस प्रकार जीव-अजीव दोनों की अवस्था भिन्न-भिन्न है। यदि पर निमित्त की अपेक्षा बिना अकेले आत्मा के स्वभाव से विकार हो, तब तो वह स्वभाव हो जाएगा और कभी भी उसका अभाव नहीं हो सकेगा, परन्तु विकार तो जीव की अवस्था की क्षणिक योग्यता है और उसमें द्रव्यकर्म निमित्तरूप हैं । निमित्त के लक्ष्य से विकार होता है परन्तु स्वभाव के लक्ष्य से विकार अथवा बन्धनभाव नहीं होता। __नौवाँ, मोक्षतत्त्व है। जीव की पूर्ण पवित्र सर्वज्ञ-वीतराग आनन्ददशा, वह मोक्ष है। इस मोक्षरूप होने की योग्यता जीव की अवस्था में है और जड़कर्म का अभाव उसमें निमित्तरूप है। जीव में पवित्र मोक्षभाव प्रगट हुआ, वहाँ कर्म स्वयं स्वतः छूट गये। जीव और अजीव - ये दो त्रिकाली तत्त्व हैं, उन्हें तथा उनकी पर्याय में सात तत्त्वरूप परिणमन होता है उसे; इस प्रकार नव तत्त्वों को पहचानना चाहिए। मोक्षरूप होने की योग्यता जीव की है और जड़कर्मों का छूट
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