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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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आत्मार्थी का पहला कर्तव्य - (7) सम्यग्दर्शन के लिए अपेक्षित भूमिका
(अफरगामी मुमुक्षु की बात)
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा का अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही आत्मार्थी जीव का पहला कर्तव्य है इसके अतिरिक्त जगत के किसी बाह्य कर्तव्य को आत्मार्थी जीव अपना कर्तव्य नहीं मानता। तीव्र वैराग्यसहित आत्मरुचि, वह सम्यक्त्व का कारण है।
जिसे निज आत्मा का हित करना हो, उसे पहले क्या करना चाहिए? - यह बात चल रही है। जो आत्मार्थी है; अर्थात्, जिसे अपना कल्याण करने की भावना है, उसे देह से भिन्न चैतन्यमूर्ति आत्मा कौन है ? उसे जानना चाहिए। आत्मा को जानने के लिए प्रथम, नव तत्त्वों का ज्ञान करना चाहिए। उन नव तत्त्वों में प्रथम, जीव और अजीव - ये दो जाति के तत्त्व अनादि-अनन्त हैं। किसी ने उन्हें बनाया नहीं है और उनका कभी नाश नहीं होता। जीव और अजीव, यह दोनों स्वतन्त्र तत्त्व हैं और इन दो के सम्बन्ध से दोनों की अवस्था में सात तत्त्व होते हैं। आत्मा में अपनी योग्यता से पुण्य-पापादि सात प्रकार की अवस्था होती है
और उसमें निमित्तरूप अजीव में भी सात प्रकार पड़ते हैं। ____ आत्मा, त्रिकाली चैतन्यवस्तु है परन्तु उसे भूलकर अवस्था में मिथ्यात्व और राग-द्वेष से अज्ञानी जीव अनादि काल से बँधा हुआ है। वह बन्धनभाव, आत्मा की योग्यता से है; किसी दूसरे ने उसे बन्धन नहीं कराया है। यदि जीव को वर्तमान अवस्था में
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