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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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जाना, वह निमित्त है, वह अजीवमोक्ष है। इस प्रकार यहाँ प्रथम तो मोक्षतत्त्व की पहचान करायी गयी है। अन्तरस्वभाव के आश्रय से जीव की परिपूर्ण पवित्र अवस्था प्रगट हो, उसे मोक्ष कहते हैं तथा अजीव कर्म के अभावरूप पुद्गल की अवस्था को भी मोक्ष कहते हैं । मोक्षतत्त्व को जान लेनेमात्र से मोक्ष नहीं हो जाता, परन्तु मोक्ष इत्यादि नव तत्त्वों को जानने के पश्चात् उनका आश्रय छोड़कर, अन्तर के अभेदस्वभाव के आश्रय से मोक्षदशा प्रगट होती है।
इस प्रकार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - इन नव तत्त्वों की पहचान करायी है। इन नव तत्त्वों को पहचानने का प्रयोजन क्या है ? नव तत्त्वों को पहचानकर अन्तर में अभेद चैतन्यमूर्ति स्वभाव का शुद्धनय से अनुभव करना ही प्रयोजन है और ऐसा अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है, वह कल्याण का मूल है और वह मानव जीवन का महाकर्तव्य है।
देखो, अनन्त काल से कभी चैतन्य की समझ नहीं की है। अनादि काल से जीव, संसार में परिभ्रमण करता है, उसमें चैतन्य की समझ का रास्ता लिये बिना दूसरे बाह्य साधन किये हैं परन्तु संसारभ्रमण का अभाव नहीं हुआ है क्योंकि चैतन्य की समझ करना ही संसारभ्रमण के अभाव का उपाय है, वह उपाय करना रह गया है। इसलिए श्रीमद् राजचन्द्रजी 'क्या साधन बाकी रह गया..' - यह बतलाते हुए कहते हैं कि - यम-नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग-विराग अथाग लह्यो। वनवास रह्यो मुख मौन रह्यो, दृढ़ आसन पद्म लगाय दियौ। यह साधन बार अनन्त कियौ, तदपि कछु हाथ हजू न पस्यौ। अब क्यों न विचारत है मन से, कछु और रहा उन साधन से॥
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