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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
अभाव होता जाता है और शुद्धता बढ़ती जाती है, इसका नाम निर्जरा है । वह जीव की अवस्था की योग्यता है, किसी बाहर की क्रिया से वह योग्यता नहीं हुई है। जीव में निर्जराभाव प्रगट हो, उस काल में कर्म खिर जाते हैं, वह अजीवनिर्जरा है, उसमें अजीव की योग्यता है । जीव और अजीव दोनों में अपनी-अपनी निर्जरा की योग्यता है । आत्मस्वभाव की दृष्टि और एकाग्रता द्वारा चैतन्य की शुद्धता होने पर अशुद्धता का अभाव हुआ, वह जीव की अपनी योग्यता है और उस समय निमित्तरूप कर्म उनके कारण स्वयं अभावरूप हुए हैं। आत्मा ने कर्मों का नाश किया है, यह कहना तो निमित्त का कथन है ।
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णमो अरिहंताणं के भावार्थ में भी अज्ञानी को आपत्ति लगे - ऐसा है । ' अरिहन्त अर्थात् कर्मरूपी शत्रु को हरनेवाले'; इसलिए भगवान के आत्मा ने जड़कर्मों का नाश किया है - ऐसा अज्ञानी तो वास्तव में मान लेगा, परन्तु ज्ञानी कहते हैं कि नहीं; वास्तव में ऐसा नहीं है। जड़कर्म, आत्मा के शत्रु हैं और भगवान ने कर्मों का नाश किया है - यह कथन तो निमित्त से है । कोई जड़कर्म, आत्मा का शत्रु नहीं है तथा आत्मा किसी जड़कर्म का स्वामी नहीं है कि वह उसका अभाव कर दे । जीव, अज्ञानभाव से स्वयं अपना शत्रु था, तब निमित्त कर्मों को उपचार से शत्रु कहा गया और जीव ने शुद्धता प्रगट करके, अशुद्धता का अभाव किया, वहाँ निमित्तरूप कर्म भी स्वयं विनष्ट हो गये; इसलिए कर्मों ने आत्मा का नाश किया ऐसा उपचार से कहा जाता है । इस प्रकार जीव और अजीव दोनों का भिन्नपना रखकर शास्त्रों का अर्थ समझना चाहिए ।
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