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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
अरिहन्त भगवान, भाषावर्गणा को ग्रहण करते हैं और फिर सामनेवाले जीव की योग्यता प्रमाण वह भाषा छोड़ते हैं - इस प्रकार जो भगवान को अजीव का कर्ता मानता है, वह अज्ञानी है। उसने जीव को अजीव का स्वामी माना है, उसे वस्तु की स्वतन्त्रता का पता नहीं है तथा केवली के स्वरूप का भी पता नहीं है। केवली को वाणी का कर्ता मानकर, वह केवलीप्रभु का अवर्णवाद करता है। वीतरागदेव क्या वस्तुस्वरूप कहते हैं ? - यह समझे बिना बहत लोगों का मनुष्यजन्म व्यर्थ चला जा रहा है। सात तत्त्वों में जीव और अजीव के स्वतन्त्र निमित्त-नैमित्तिकपने की श्रद्धा करना, वह तो व्यवहारश्रद्धा में आ जाती है; परमार्थश्रद्धा तो उससे अलग है। जितने प्रमाण में जीव शुद्धता करता है और अशुद्धता मिटती है, उतने ही प्रमाण में कर्मों की निर्जरा होती है। फिर भी दोनों का परिणमन स्वतन्त्र है। मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण पर्याय में वैसा मेल हो जाता है। ___ आठवाँ, बन्धतत्त्व है। जीव, विकारभाव में अटकता है, उसका नाम बन्धन है। बन्धनयोग्य जीव की अवस्था है और उसमें निमित्तरूप जड़कर्म को बन्धन करनेवाला कहते हैं परन्तु कर्म ने जीव को बन्धन कराया - ऐसा नहीं है; योग्यता तो जीव की अवस्था की है। आत्मा में बन्धन की योग्यता हुई; इसलिए कर्म को बँधना पड़ा - ऐसा भी नहीं है और कर्म के कारण जीव बँधा - ऐसा भी नहीं है। जिसने स्वभाव के एकपने की श्रद्धा की है, उसे पर्याय की योग्यता का यथार्थ ज्ञान होता है। मात्र नव तत्त्व को जाने, परन्तु अन्तर में स्वभाव की एकता की ओर नहीं ढले तो यथार्थ ज्ञान नहीं होता और सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं होता।
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