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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [147 अपेक्षा मानें, तब नव तत्त्वों को व्यवहार से माना जा सकता है परन्तु इस जगत् में अकेला ब्रह्मस्वरूप आत्मा ही है अथवा अकेले जड़ पदार्थ ही हैं - ऐसा माने अथवा जड़-चेतन दोनों अवस्था स्वतन्त्र नहीं मानें तो उसे नव तत्त्वों की यथार्थ मान्यता नहीं हो सकती है। नव तत्त्वों को मानने में तो व्यवहारवीर्य है अर्थात् शुभविकल्प का अल्प वीर्य है और फिर अनन्त वीर्यरूप चैतन्यद्रव्य की तरफ ढले, तब एक शुद्ध आत्मा की प्रतीति होती है। नव तत्त्व की प्रतीति की अपेक्षा अभेद चैतन्यतत्त्व की प्रतीति करने में अलग ही जाति का बेहद पुरुषार्थ है परन्तु जिसमें एक पैसा देने की सामर्थ्य नहीं है, वह अरबों रुपये कहाँ से दे सकेगा? इसी प्रकार जो कुदेवादि को मानता है, उसमें नव तत्त्व के सच्चे विचार की भी ताकत नहीं है। जहाँ नव तत्त्व के विचार की भी ताकत नहीं है, वहाँ वह जीव, अभेद आत्मा की निर्विकल्पश्रद्धा, अनुभव कैसे कर सकेगा? और इसके बिना उसे धर्म अथवा शान्ति नहीं होगी। यहाँ आचार्यदेव शुद्ध आत्मतत्त्व का अनुभव कराने के लक्ष्य से प्रथम तो नव तत्त्वों की पहचान कराते हैं। उसमें से छठवें संवर तत्त्व की व्याख्या चल रही है। जीव और अजीव को ऐसा निमित्त -नैमित्तिक सम्बन्ध है कि जीव की अवस्था में जब निर्मल सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रगट होकर अशुद्धता रूक जाती है, तब अजीव परमाणुओं में भी कर्मरूप परिणमन नहीं होता, इसे संवर कहते हैं। जीव में संवररूप होने की योग्यता है और अजीव परमाणु उसमें निमित्त होने से उन्हें संवर कहते हैं। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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