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________________ www.vitragvani.com 146] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 के शुद्ध अंश प्रगट होते हैं, वह तो अभेद आत्मा में एकरूप हो जाते हैं परन्तु जब नव तत्त्व के भेद से विचार करते हैं, तब जीव की पर्याय की योग्यता है - ऐसा कहते हैं। उसमें द्रव्य-पर्याय का भेद पाड़कर कथन है। नव तत्त्व के भेद पाड़कर संवर-पर्याय को लक्ष्य में लेने से कर्म के निमित्त की अपेक्षा आती है। अकेले अभेदस्वभाव की दृष्टि में तो वह भेद नहीं पड़ते हैं। संवर की निर्मलपर्याय प्रगट हुई, वह अभेद में ही मिल जाती है। ___ जीव में संवर के काल में कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय की ही योग्यता उसके कारण ही होती है, वह अजीवसंवर है। जीव में विकार के समय, कर्म में उदय की योग्यता होती है और जीव में संवर के समय, कर्म में उपशम इत्यादि की ही योग्यता होती है - ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अकेले जीवतत्त्व को ही लक्ष्य में लो तो सात तत्त्व के भेद नहीं पड़ते हैं तथा अकेले अजीवतत्त्व को ही लक्ष्य में लो तो भी सात तत्त्व के भेद नहीं पड़ते हैं। जीव और अजीव को एक-दूसरे की अपेक्षा से अवस्था में सात तत्त्व होते हैं। उन दोनों की अवस्था में सात तत्त्वरूप परिणमन होता है। जीव में सात तथा अजीव में भी सात भेद पड़ते हैं। उन सात तत्त्वों का लक्ष्य छोड़कर, अकेले चैतन्यतत्त्व को ही अभेदरूप से लक्ष्य में लेने पर उसमें सात प्रकार नहीं पड़ते और सात प्रकार के विकल्प उत्पन्न नहीं होते, परन्तु निर्मलपर्याय होकर अभेद में मिल जाती है। जगत् में जीव और अजीव वस्तुएँ भिन्न-भिन्न हैं - ऐसा मानकर उनका स्वतन्त्र परिणमन मानें और उसमें एक-दूसरे की Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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