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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] अजीवकर्म के कारण आत्मा में विकार होता है - ऐसा भी नहीं है; वहाँ जीव की अपनी वर्तमान योग्यता है । प्रति समय कर्म के जो -जो रजकण आते हैं, वह विकार के प्रमाण में ही आते हैं - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक का सुमेल होने पर भी विकार के कारण वे रजकण नहीं आते; दोनों का वैसा ही स्वभाव है । जैसे, तराजू के एक पलड़े में एक किलो का बाँट रखकर, दूसरे पलड़े में एक किलो वस्तु रखे तब काँटा बराबर रहता है - ऐसा ही उसका स्वभाव है; उसमें उसे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार जड़कर्मों को कुछ पता नहीं है कि इस जीव ने कितना विकार किया है; इसलिए उसके पास जाऊँ ? परन्तु उसकी अपनी योग्यता से ही वह वैसे कर्मरूप परिणम जाता है। विकार के प्रमाण में ही कर्म आते हैं - ऐसा उनका स्वभाव है । विकार को जानकर आस्रवरहित शुद्ध आत्मा की श्रद्धा करना ही प्रयोजन है। यह जानकर भी शुद्ध आत्मा की श्रद्धा किये बिना, कभी धर्म नहीं होता है। I [ 145 छठवाँ संवरतत्त्व है । संवर अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप निर्मलदशा। वह संवर कोई देव - शास्त्र-गुरु से अथवा बाह्य क्रिया से नहीं होता, किन्तु जीव की अपनी योग्यता से होता है। वह संवर, जीवद्रव्य के आश्रय से होता है परन्तु यहाँ संवरतत्त्व किस प्रकार प्रगट होता है ? यह बात नहीं बतलाना है। यहाँ तो मात्र संवरतत्त्व है, इतना ही सिद्ध करना है । संवरतत्त्व कैसे प्रगट हो ? यह बात बाद में की जाएगी। जड़कर्म हटें तो सम्यग्दर्शनादि होते हैं- ऐसी परतन्त्रता नहीं है। सम्यग्दर्शनादि होने की योग्यता जीव की अपनी है । अन्तरस्वभाव में एकता होने पर जो संवर-निर्जरा Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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