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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
जीव के जिस विकारीभाव के निमित्त से जड़कर्मों का आना होता है, उस भाव को आस्रव कहते हैं, वह जीव आस्रव है। एक समयमात्र का आस्रव, जीव की योग्यता से होता है - ऐसा निश्चित किया, उसमें उस समय कर्तृत्व-भोक्तृत्व इत्यादि गुण की वैसी ही योग्यता है - ऐसा भी आ जाता है। ज्ञान को वैसा ही जानने की योग्यता है; चारित्र में उसी प्रकार के परिणमन की योग्यता है; इसलिए पर के समक्ष देखना नहीं रहता, किन्तु अपनी योग्यता के समक्ष देखना रहा।
यदि प्रत्येक समय की स्वतन्त्रता निश्चित करे तो पर के आश्रय की मिथ्याबुद्धि छूट जाए तथा एक समय की पर्याय की योग्यता जितना मेरा स्वरूप नहीं है - ऐसा निश्चित करके, एक समय की पर्याय का आश्रय छोड़कर, त्रिकालीस्वभाव के सन्मुख ढले बिना नहीं रहे। 'पर्याय का आश्रय छोड़ना' - ऐसा समझने के लिए कहा जाता है परन्तु वस्तुतः तो अखण्ड द्रव्य के सन्मुख ढलने पर पर्याय का आश्रय रहता ही नहीं है। मैं पर्याय का आश्रय छोडूं - ऐसे लक्ष्य से पर्याय का आश्रय नहीं छूटता है; पर्याय को द्रव्य में अन्तर्लीन करने पर पर्याय का आश्रय छूट जाता है।
नव तत्त्व की श्रद्धा के बिना सीधे आत्मा की श्रद्धा नहीं होती है और नव तत्त्व की श्रद्धा के विकल्प करनेमात्र से सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता है। ___जीव की पर्याय और अजीव की पर्याय - ये दोनों भिन्न -भिन्न हैं । जीव के विकार के कारण जड़कर्म में आस्रवदशा होती है - ऐसा नहीं है परन्तु उस अजीव में वैसी योग्यता है और
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