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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
यद्यपि देव-गुरु-शास्त्र की ओर के लक्ष्य से आत्मा की प्रसिद्धि नहीं होती, तथापि जिसे देव - गुरु-शास्त्र की पहचान में भी विपरीतता हो, वह तो सम्यग्दर्शन से अत्यन्त दूर है। अभी सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की भी जिसे पहचान नहीं है, नव तत्त्व की श्रद्धा का भी पता नहीं है, उसे तो व्यवहार श्रद्धा भी सच्ची नहीं है, उसकी तो यहाँ बात नहीं है परन्तु कोई जीव, नव तत्त्व को जानने में ही रुक जाए और नव का लक्ष्य छोड़कर एक आत्मसन्मुख न हो तो उसे भी सम्यग्दर्शन नहीं होता है । नव तत्त्व की श्रद्धा बीच में आती है, उसे व्यवहारश्रद्धा कब कहते हैं ? यदि नव के विकल्प का आश्रय छोड़कर, भूतार्थ के आश्रय से आत्मा की ख्याति करे, आत्मा की प्रसिद्धि करे, आत्मा की अनुभूति करे तो नव तत्त्व की श्रद्धा को व्यवहारश्रद्धा कहते हैं। अभेद आत्मा की श्रद्धा करके, परमार्थ श्रद्धा प्रगट करे तो नव तत्त्व की श्रद्धा पर व्यवहारश्रद्धा का उपचार आता है; वरना निश्चय के बिना व्यवहार कैसा ? निश्चयरहित व्यवहार को तो व्यवहाराभास कहते हैं।
श्री आचार्यदेव ने इस टीका का नाम आत्मख्याति रखा है । आत्मख्याति अर्थात् आत्मा की प्रसिद्धि । एकरूप शुद्ध आत्मा की प्रसिद्धि करना, अनुभूति करना, वह इस टीका का मुख्य प्रयोजन है। इस ग्रन्थ में नव तत्त्व का वर्णन आयेगा अवश्य, परन्तु उसमें मुख्यता तो एकरूप शुद्ध आत्मा की ही बतलाना है। इस प्रकार आचार्यदेव के कथन में शुद्ध आत्मा की मुख्यता है; इसलिए श्रोताओं को भी अन्तर में एकरूप शुद्ध आत्मा को लक्ष्य में पकड़ने की मुख्यता रखकर श्रवण करना चाहिए। बीच में विकल्प और भेद का वर्णन आवे तो भी उसकी मुख्यता करके नहीं अटकते हुए
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