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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [131 जाता है परन्तु उसमें विकल्पसहित था; इसलिए वह जीवतत्त्व अभूतार्थनय का विषय था और यहाँ सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए भूतार्थनय से विकल्परहित होकर एक अभेद आत्मा की श्रद्धा करने की बात है। भूतार्थनय के अवलम्बन से शुद्ध आत्मा को लक्ष्य में लेने के अतिरिक्त व्यवहारनय के आलम्बन में चैतन्य का एकपना प्रगट करने की सामर्थ्य नहीं है। अभूतार्थनय से देखने पर नव तत्त्व दिखते हैं परन्तु भूतार्थनय से तो एक आत्मा ही शुद्धज्ञायकरूप प्रकाशवान है। शुद्धनय से स्थापित एक आत्मा की ही अनुभूति, वह सम्यग्दर्शन है। यद्यपि अनुभूति तो ज्ञान की स्व-सन्मुख पर्याय है परन्तु उस अनुभूति के साथ सम्यग्दर्शन नियम से होता है; इसलिए यहाँ अनुभूति को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। व्यवहार में नव तत्त्व थे, उनके लक्षण जीव-अजीव आदि नव थे और इस शुद्धनय के विषय में एकरूप आत्मा ही है; उसमें नव की प्रसिद्धि नहीं, किन्तु चैतन्य का एकपना ही प्रसिद्ध है - ऐसे शुद्ध आत्मा की अनुभूति का लक्षण आत्मख्याति है। इस अनुभूति में विकल्प की प्रसिद्धि नहीं, किन्तु आत्मा की प्रसिद्धि है। जीव-अजीव के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को लक्ष्य में लेकर देखने से नव तत्त्व हैं अवश्य; उन्हें व्यवहारनय स्थापित करता है परन्तु भूतार्थनय/शुद्धनय तो एक अभेद आत्मा को ही स्थापित करता है। जीव-अजीव के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पर भी वह लक्ष्य नहीं करता। आत्मा त्रिकाल एकरूप सिद्धसमान मूर्ति है - ऐसे आत्मा की श्रद्धा करना, वह परमार्थ सम्यग्दर्शन है, उसमें भगवान आत्मा की प्रसिद्धि होती है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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