SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 130] [ सम्यग्दर्शन : भाग - 3 सम्यग्दर्शन नहीं होता । नव तत्त्वों का भलीभाँति विचार भी अभी तो पुण्य है। जड़-शरीर की क्रिया से आत्मा को धर्म होता है - ऐसे माननेवाले को तो जीव - अजीवतत्त्व की भिन्नता की श्रद्धा भी नहीं है अथवा 'शुभभाव से पुण्य हुआ, वह अब आत्मा को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में मदद करेगा' - ऐसी समस्त मान्यताएँ मिथ्या हैं । ऐसी मान्यतावाले को तो नव तत्त्व में से पुण्यतत्त्व का भी पता नहीं है, उसे तो शुद्ध आत्मा का अनुभव ही नहीं होता है । पहले तो सत्समागम में श्रवण-मनन करके नव तत्त्वों को जानें, तत्पश्चात् उसमें भूतार्थनय से एकपना प्राप्त कर सकें, तब सम्यग्दर्शन होता है। भेद के लक्ष्य से नव तत्त्व की भिन्न-भिन्न श्रद्धा करने में अनेकपना है, वह परमार्थ सम्यग्दर्शन नहीं है। नव तत्त्व व्यवहारनय का विषय है, उस व्यवहारनय के आश्रय से सम्यग्दर्शन नहीं होता; इस प्रकार लक्ष्य में लेकर जिसने नव तत्त्व का ज्ञान करने में भी चैतन्य की रुचि की है, उसे फिर नव तत्त्व के विकल्परहित होकर अभेद आत्मा की प्रतीति करने से निश्चयसम्यग्दर्शन होता है। ऐसा निश्चयसम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से ही होता है और वहीं से अपूर्व आत्मधर्म का प्रारम्भ होता है। ऐसे निश्चयसम्यग्दर्शन के बिना चौथा गुणस्थान अथवा धर्म की शुरुआत नहीं होती है। यह सब समझने के लिए सत्समागम से अभ्यास करना चाहिए। पहले संसार की तीव्र लोलुपता को घटाकर सत्समागम का समय लेकर आत्मस्वभाव का श्रवण - मनन और रुचि किये बिना अन्तरोन्मुख किस प्रकार होगा ? प्रथम, नव तत्त्व का निर्णय किया, उसमें भी जीव तो आ ही Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy