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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [129 विधि है। व्यवहारश्रद्धा में नव तत्त्व की प्रसिद्धि है परन्तु परमार्थश्रद्धा में तो अकेले भगवान आत्मा की ही प्रसिद्धि है। नव तत्त्व के विकल्प से पार होकर, एकरूप ज्ञायकमूर्ति का अनुभव करनेवाले ने भूतार्थनय से नव तत्त्वों को जाना हुआ कहा जाता है और वही नियम से सम्यग्दर्शन है। ऐसा सम्यग्दर्शन प्रगट किये बिना, किसी भी प्रकार से जीव के भवभ्रमण का अन्त नहीं आ सकता है। ___ जीव और अजीव, ये मूल तत्त्व हैं और शेष सात तत्त्व इनके निमित्त से उत्पन्न हुई पर्यायें हैं; इस प्रकार कुल नव तत्त्व हैं, वे अभूतार्थनय से हैं। भूतार्थनय से उनमें एकपना प्रगट करने से ही अर्थात् शुद्ध एकरूप आत्मा को लक्ष्य में लेने से ही सम्यग्दर्शन होता है। नव तत्त्वों को सम्यग्दर्शन का विषय कहना, वह व्यवहार का कथन है। वास्तव में सम्यग्दर्शन का विषय भेदरूप नहीं, किन्तु अभेदरूप ज्ञायक आत्मा ही है। मोक्षशास्त्र में तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् - ऐसा कहा है। वहाँ भी वास्तव में नौ का लक्ष्य छोड़कर, एक चैतन्यतत्त्व के सन्मुख ढलने पर ही सच्चा तत्त्वश्रद्धान कहलाता है। अखण्ड चैतन्य वस्तु का आश्रय करने पर भूतार्थनय से एकपना प्राप्त होता है। जिसमें निमित्त की अपेक्षा नहीं है और भेद का विकल्प नहीं है - ऐसे त्रिकाल शुद्धस्वभाव के सन्मुख झुककर अनुभव करने से चैतन्य का एकपना प्राप्त होता है और उस अनुभव में भगवान आत्मा की प्रसिद्धि होती है, वह सम्यग्दर्शन है। इसके अतिरिक्त देव-गुरु इत्यादि निमित्त के आश्रय से तो सम्यग्दर्शन नहीं होता; दया, पूजादि के भावरूप पुण्य से भी सम्यग्दर्शन नहीं होता और नव तत्त्व की व्यवहार श्रद्धा से भी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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