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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] शुद्ध आत्मा को ही मुख्य करके लक्ष्य में लेना चाहिए। नव तत्त्व को जानने का प्रयोजन तो आत्मस्वभाव के सन्मुख होना ही है । [ 133 नव तत्त्व में जीव को वास्तव में कब माना कहलाये ? नव के भेद की सन्मुखता छोड़कर एकरूप जीवस्वभाव के सन्मुख ढले तो जीव को माना कहलाये । आस्रव - बन्धतत्त्व को कब माना कहलाये ? जब उनके अभावरूप आत्मस्वभाव को माने तो आस्रव बन्ध को माना कहलाये । संवर-निर्जरा-मोक्षतत्त्व को कब माना कहलाये ? जब स्वभावसन्मुख ढलकर आंशिक संवर- निर्जरा प्रगट करे तो संवरादि को माना कहलाये । इस प्रकार नव तत्त्व को जानकर, यदि अभेद आत्मा की ओर ढले तो ही नव तत्त्व को वास्तव में जाना कहा जाता है । यदि अभेद आत्मा की तरफ नहीं ढले और नव तत्त्वों के विकल्प में ही अटक जाए तो नव तत्त्व को वास्तव में जाना - ऐसा नहीं कहा जाता । नव तत्त्व के विकल्प भी अभेद आत्मा के अनुभव में काम नहीं आते। पहले नव तत्त्व सम्बन्धी विकल्प होते हैं परन्तु अभेद आत्मा का अनुभव करने पर वे विकल्प मिट जाते हैं, नव तत्त्व का ज्ञान रह जाता है परन्तु एकरूप आत्मा के अनुभव के समय नव तत्त्व के विकल्प नहीं होते हैं। जब ऐसा अनुभव प्रगट हो, तब चौथा गुणस्थान अर्थात् धर्म की पहली सीढ़ी कहलाता है । इसके अतिरिक्त बाह्य क्रिया से अथवा पुण्य से धर्म की शुरुआत नहीं होती । यहाँ बाह्य क्रिया की तो बात ही नहीं है । अन्तर में नव तत्त्व का विचार करना भी अभेदस्वरूप के अन्तर अनुभव में ढलने के लिए काम नहीं आता। अभेद आत्मा में ढलना, वह नव तत्त्व के Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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