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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
एकपने की प्राप्ति के बिना रागरहित आनन्द का अनुभव नहीं रहता, सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता।
भूतार्थनय नव तत्त्व के विकल्परहित चैतन्य का एकपना प्रगट करनेवाला है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है। नव तत्त्वों की श्रद्धा, वह चैतन्य का एकपना प्रगट नहीं करती और उसके आश्रय से सम्यग्दर्शन नहीं होता। नव तत्त्व की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन के व्यवहाररूप में स्थापित किया जाता है किन्तु उसके द्वारा अभेद स्वभाव में एकता नहीं होती। अभेदस्वभाव के आश्रय से ही आत्मा का एकपना प्राप्त होता है। अभेदस्वभाव के आश्रय से आत्मा में एकपना प्राप्त करना ही परमार्थ सम्यग्दर्शन है और वह प्रथम धर्म है।.
अहा! दिगम्बर सन्तों की वाणी... अहा! दिगम्बर सन्तों की वाणी पञ्चम काल के अत्यन्त अप्रतिबुद्ध श्रोताओं से कहती है कि भाई! आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए अभी से शुरुआत कर दे। समयसार की 38 वीं गाथा की टीका में कहा है कि विरक्त गुरु से निरन्तर समझाये जाने पर, दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप परिणत होकर जो सम्यक् प्रकार से एक आत्माराम हुआ है, वह श्रोता / शिष्य कहता है कि कोई भी परद्रव्य, परमाणुमात्र भी मुझरूप भासित नहीं होता, जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूप होकर फिर से मोह उत्पन्न करे, क्योंकि निजरस से ही मोह को मूल से उखाड़कर, फिर से अंकुरित न हो - ऐसा नाश करके, महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है।
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