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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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से ही विद्यमान हैं। भूतार्थनय से अभेदस्वभाव में एकपना प्रगट करने पर वे नव तत्त्व अभूतार्थ हैं। मैं ज्ञायक चैतन्य हूँ - ऐसे अन्तर में विद्यमान स्वभाव के आश्रय की दृष्टि से एक आत्मा का अनुभव होता है। शुद्धनय से ऐसा अनुभव होने पर अनादि का मिथ्यात्व मिटकर, अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और धर्म की शुरुआत होती है।
प्रश्न - नव तत्त्वों को अभूतार्थ कहा, किन्तु उसमें तो जीव तत्त्व भी आ गया; इसलिए जीवतत्त्व को भी अभूतार्थ कहा - यह किस प्रकार?
उत्तर - शुद्ध जीवतत्त्व है, वह तो भूतार्थ है परन्तु 'मैं जीव हूँ' - ऐसा जीव सम्बन्धी विकल्प उत्पन्न हो, वह अभूतार्थ है। उस विकल्प के द्वारा जीव को स्वभाव का अनुभव नहीं हो सकता; इसलिए मैं जीव हूँ - ऐसे जीव रागमिश्रित विकल्प को अथवा जीव के व्यवहार भेदों का जीवतत्त्व के रूप में वर्णन करके उन्हें यहाँ अभूतार्थ कहा है - ऐसा समझना चाहिए। ____नव तत्त्वों में अनेकता है, उनके विचार में अनेक समय लगते हैं; एक समय में एक साथ नव तत्त्व के विचार नहीं होते। उन नव तत्त्वों के लक्ष्य से राग की उत्पत्ति होती है और अन्तर में चैतन्य की एकता का अनुभव एक समय में होता है। प्रथम, अभेद चैतन्यस्वभाव में अन्तर्मुख होकर श्रद्धा से चैतन्य में एकपना प्रगट करना, वह अपूर्व सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय है, वह तो नव तत्त्व के भेद से आत्मा का अनेकपना प्रगट करता है। उस अनेकपना प्रगट करनेवाले नय से चैतन्य का एकपना/एकत्व प्राप्त नहीं होता और चैतन्य के
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