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________________ 124] [ सम्यग्दर्शन : भाग - 3 की ओर ही झुकाव रहा करे, तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता। नव तत्त्व के भेद का अवलम्बन छोड़कर, अभेद चैतन्य की तरफ ढलकर स्वानुभूतिपूर्वक प्रतीति प्रगट करना, वह नियम से सम्यग्दर्शन है। www.vitragvani.com नव तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं, उनमें अनेकता है । उस अनेकता का लक्ष्य, राग का कारण है; इसीलिए इसे नियम से सम्यग्दर्शन नहीं कहा है । उन नव तत्त्वों में एकपना प्रगट करनेवाला शुद्धनय है। उस शुद्धनय से एकरूप आत्मा का अनुभव करना ही नियम से सम्यग्दर्शन है । 'भूतार्थनय से नव तत्त्वों में एकपना प्रगट करना' इसका अर्थ यह है कि नव तत्त्वों के भेद का लक्ष्य छोड़कर भूतार्थनय से एकरूप आत्मा को लक्ष्य में लेना । भूतार्थनय में नव तत्त्व दिखाई नहीं देते, अपितु एकरूप ज्ञायक आत्मा ही दिखाई देता है। नव तत्त्वों के सन्मुख देखकर एकरूप ज्ञायकस्वभाव में एकपना नहीं होता; नव तत्त्वों के समक्ष देखने से तो राग की उत्पत्ति होती है। नव तत्त्वों के भेद का लक्ष्य छोड़कर अभेद चैतन्य को शुद्धनय से जानने पर, नव तत्त्वों में एकपना प्रगट किया कहा जाता है। — भेदरूप नव तत्त्वों को ज्यों का त्यों जाना, वहाँ तक तो आँगन आया है। उस आँगन में आने के पश्चात् अब वहाँ से आगे बढ़कर चैतन्यघर में जाने की और शुद्धस्वभाव की प्रतीति तथा अनुभव करने की यह बात है । तात्पर्य यह है कि अनादि का मिथ्यात्व मिटकर अपूर्व सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्रगट हो ? उसकी यह बात है। यहीं से धर्म की प्रथम शुरुआत होती है। नव तत्त्व तो अभूतार्थनय Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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