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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [ 123 प्रगट हुआ है, वहाँ चार घातिकर्म तो क्षय हुए हैं और चार अघातिकर्म शेष रहे हैं परन्तु वे जली हुई रस्सी के समान हैं। जिस प्रकार जली हुई रस्सी बाँधने के काम नहीं आती; उसी प्रकार अवशेष चार घातिकर्म हैं, उससे कहीं अरिहन्त भगवान को क्षुधा अथवा रागादि नहीं होते - ऐसे अरिहन्त भगवान जीवन्मुक्त हैं और फिर वे परमात्मा, शरीररहित हो जाते हैं, वे सिद्ध हैं । जिन्हें उनकी पहचान होती है, उसे व्यवहार से नव तत्त्व की श्रद्धा हुई कही जाती है। नव तत्त्व में मोक्षतत्त्व की श्रद्धा करने से, उसमें अरिहन्त और सिद्ध की श्रद्धा भी आ जाती है। इस प्रकार जीव- अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव - संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - ऐसे नव तत्त्व अभूतार्थनय से अर्थात् व्यवहारनय से विद्यमान हैं। तात्पर्य यह है कि पर्यायदृष्टि से देखने पर वे नव तत्त्व विद्यमान हैं। उन नव तत्त्वों को जाने बिना चैतन्यतत्त्व की प्रतीति की सीढ़ियों पर नहीं जाया जा सकता। यदि नव तत्त्व के विकल्प में ही रुक जाए तो भी अभेद चैतन्य का अनुभव नहीं होता। अभेद चैतन्यस्वभाव के अनुभव के समय नव तत्त्व के विकल्प नहीं होते; इसलिए त्रिकाली चैतन्यस्वभाव की दृष्टि से देखने पर वे नव तत्त्व अभूतार्थ हैं, अविद्यमान हैं । त्रिकाली तत्त्व में नव तत्त्व के विकल्प रहा ही करें - ऐसा उसका स्वरूप नहीं है । भूतार्थस्वभाव की दृष्टि से तो एक चैतन्यमूर्ति आत्मा ही प्रकाशमान है - ऐसे चैतन्य में एकता प्रगट हो, वह सम्यग्दर्शन है। देखो! प्रथम, अभेद के लक्ष्य की ओर ढलने पर नव तत्त्व के विकल्प आते अवश्य हैं परन्तु जब तक उन नव तत्त्व के विकल्प Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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