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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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आत्मार्थी का पहला कर्तव्य - (5) भूतार्थस्वभाव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन
आत्महित के पिपासु को आत्मा का वास्तविक स्वरूप शोधने के लिए नव तत्त्वों को भलीभाँति जानना चाहिए। उसमें अपने हित-अहित के कारणों का विभाजन करके, जिसके आश्रय से अपना हित प्रगट हो - ऐसे शुद्धात्मस्वभाव के सन्मुख अन्तर में झुकना ही सम्यग्दर्शन की अफर विधि है।
नव तत्त्व का यथार्थ वर्णन जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं है। इन नव तत्त्वों की पहचान करना, वह जैनदर्शन की श्रद्धा का व्यवहार है। नव तत्त्व की पहचान न हो, तब तक एकरूप आत्मा की श्रद्धा नहीं होती और यदि नव तत्त्व की पृथक्-पृथक् श्रद्धा के राग की रुचि में अटक जाए तो भी एक आत्मा की श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन नहीं होता है।
नव तत्त्व को जाना कब कहा जाए? जब जीव को जीव जाने, उसमें दूसरे को नहीं मिलाएँ अर्थात् जीव, शरीर की क्रिया करता है - ऐसा नहीं मानें। अजीव को अजीव जाने । शरीर अजीव है। जीव के कारण उस अजीव का अस्तित्व नहीं माने और उस अजीव की क्रिया को जीव की नहीं मानें। ___ पुण्य को पुण्यरूप में जानें, पुण्य से धर्म नहीं मानें तथा जड़ की क्रिया से पुण्य नहीं मानें; पाप को पापरूप जानें, वह पाप बाह्य क्रिया से होता है - ऐसा नहीं माने। आस्रव को आस्रवरूप जानें, पुण्य और पाप दोनों आस्रव हैं, उन्हें संवर का कारण नहीं मानें पाप बुरा है, पुण्य भला है - ऐसा भेद परमार्थ से नहीं माने।
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