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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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अभी तो अरिहन्त भगवान, अजीव वाणी के रजकणों का ग्रहण करते हैं और फिर सामनेवाले जीव की योग्यतानुसार उन रजकणों को छोड़ते हैं - इस प्रकार जो केवली भगवान को अजीव का ग्रहण-त्याग मानता है, उसने अरिहन्त को नहीं पहचाना है। जिसने अरिहन्त का स्वरूप नहीं जाना है, उसने मोक्षतत्त्व को भी नहीं जाना है; मोक्ष के उपाय को भी नहीं जाना है। वस्तुतः उसने नव तत्त्वों को ही नहीं जाना है और नव तत्त्वों को जाने बिना धर्म नहीं होता है।
प्रत्येक आत्मा का स्वभाव शक्तिरूप से अनन्त केवलज्ञान -दर्शन-सुख और वीर्य से परिपूर्ण है। उसका भान करके उसमें एकाग्रतापूर्वक जिन्होंने अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख और वीर्यरूप अनन्त चतुष्टय प्रगट किया है, वे देव हैं और उन्हें ही मोक्षतत्त्व प्रगट हुआ है। ऐसी मुक्तदशा प्रगट होने के पश्चात् जीव का पुनः कभी अवतार नहीं होता।
अज्ञानी जीव, आत्मा के रागरहित स्वभाव को नहीं जानते और मन्दकषायरूप शुभराग को ही धर्म मान लेते हैं। उस शुभराग के फल में स्वर्ग का भव हो, वहाँ रहने की बहुत लम्बी स्थिति होने से अज्ञानी उसे ही मोक्ष मान लेते हैं तथा उस स्वर्ग में से पुनः दूसरा अवतार होता है; इस कारण अज्ञानी जीव, मोक्ष होने पर भी अवतार होना मान लेते हैं। जीव की मुक्ति होने के पश्चात् पुनः अवतार होना माननेवाले मोक्षतत्त्व को नहीं जानते हैं किन्तु बन्धतत्त्व को ही मोक्षरूप मान लेते हैं। अवतार का कारण तो बन्धन है, उस बन्धन का एक बार सर्वथा नाश हो जाने पर फिर से अवतार नहीं होता है।
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