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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
शुद्धता नहीं होती, फिर भी जो अशुद्धता से शुद्धता होना अर्थात् पुण्य से निर्जरा होना मानता है, उसने निर्जरा इत्यादि तत्त्वों को नहीं जाना है। नव तत्त्व के विकल्परहित चैतन्यद्रव्य के भानसहित एकाग्रता बढ़ने पर शुद्धता बढ़ती है, अशुद्धता मिटती है तथा कर्म खिरते हैं, वह निर्जरा है। जिसे ऐसा निर्जरातत्त्व प्रगट हुआ हो, उन्हें गुरु कहते हैं। संवर-निर्जरा - यह दोनों आत्मा की निर्मलपर्यायें हैं, धर्म है।
संवर-निर्जरा, वह मोक्ष का साधन है। ऐसे संवर-निर्जरा के फल में जिन्हें पूर्ण परमात्मदशा प्रगट हुई है, वे देव हैं और वह संवर-निर्जरारूप साधकदशा जिन्हें वर्तती है, वे गुरु हैं तथा वह संवर-निर्जरारूप निर्मलभाव, स्वयं धर्म है। इस प्रकार नव तत्त्व की और देव-गुरु-धर्म की पहचान करना, वह व्यवहारश्रद्धा है। ___'तप से निर्जरा होती है' - ऐसा शास्त्र में आता है, वहाँ लोग
आहार छोड़ना, वह तप है और उससे निर्जरा हुई, बाह्य दृष्टि से ऐसा मान लेते हैं। वस्तुतः उन्हें तो तप क्या है और निर्जरा क्या है ? इसका भी भान नहीं है। तप से निर्जरा होती है, यह बात सत्य है परन्तु उस तप का स्वरूप क्या है ? बाह्यक्रिया से निर्जरा नहीं होती, परन्तु अन्तर में चैतन्यस्वरूप का भान करके, उसमें एकाग्र होने से सहज ही इच्छा का निरोध हो जाता है, वह तप है और उस तप से निर्जरा होती है।
सम्यक्प से चैतन्य का प्रतपन होना, वह तप है। जिसे चैतन्य का भान नहीं है, उसे वास्तविक तप नहीं होता। जो पुण्य से अथवा शरीर की क्रिया से संवर-निर्जरा मानता है, उसे तो, नौवें ग्रेवेयक जानेवाले मिथ्यादृष्टि जीव को जैसी नव तत्त्व की
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