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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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व्यवहारश्रद्धा अनन्त बार होती है, वैसी व्यवहारश्रद्धा का भी ठिकाना नहीं है। जो पुण्य को क्षयोपशमभाव मानता है और उसे धर्म का कारण मानता है, उसने पुण्यतत्त्व और धर्मतत्त्व को नहीं जाना है
और उसे धर्म भी नहीं होता है। __आत्मा में शुद्धि की वृद्धि हुए बिना अपने-आप स्थिति पूर्ण होकर, फल देकर कर्मों का खिर जाना सविपाक निर्जरा है। वह निर्जरा तो सभी जीवों को प्रतिक्षण होती है, वह कहीं धर्म का कारण नहीं है तथा आत्मा के भान बिना ब्रह्मचर्य, दया इत्यादि के शुभभाव से किञ्चित् अकामनिर्जरा होती है, वह भी धर्म में नहीं गिनी जाती है; अपितु नव तत्त्व का भान करके एक स्वभाव के आश्रय से आत्मा में शुद्धता की वृद्धि, अशुद्धता की हानि और कर्मों का खिरना, वह सकामनिर्जरा है, जो कि मोक्ष का कारण है। ___ आठवाँ, बन्धतत्त्व है। विकारमात्र में जीव का बँध जाना अर्थात् अटक जाना, वह बन्धतत्त्व है। जीव को किसी पर के कारण बन्धन नहीं होता, परन्तु अपनी पर्याय, विकारभाव में रुक गयी है, वही बन्धन है। पुण्य-पाप के भावों से आत्मा मुक्त नहीं होता, अपितु बँधता है; इसलिए वे पुण्य-पाप, बन्धतत्त्व का कारण हैं; इसके बदले पुण्य को धर्म का साधन अथवा उसे अच्छा माननेवाला, बन्ध इत्यादि तत्त्वों का स्वरूप नहीं समझा है। दया, पूजादि शुभभाव अथवा हिंसा, चोरी आदि अशुभभाव - ये सब विकार हैं; इनके द्वारा आत्मा छूटता नहीं है, अपितु बँधता है। ___पुण्य और पाप - ये दोनों भाव मलिनभाव हैं, बन्धनभाव हैं। अभी पुण्य करेंगे तो भविष्य में अनुकूल सामग्री प्राप्त होगी और
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