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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] भगवान और देव-गुरु का महा अनादर है । मिथ्यामान्यता द्वारा अनन्त गुण के पिण्ड चैतन्य की हत्या करके विकार से लाभ मानता है, वह महा-अपराधी है; मिथ्यात्व ही महापाप है । जिस प्रकार प्रतीदिन करोड़ों रुपये की आमदनीवाले बड़े राजा का इकलौता पुत्र हो और प्रात:काल राजगद्दी पर बैठने की तैयारी हुई हो, उस क्षण कोई उसका सिर काट दे तो वह कितना बड़ा अपराध है ? इसी प्रकार चैतन्य राजा अनन्त गुण की सम्पदा का स्वामी है, उसमें से निर्मलदशा प्रगट हो - ऐसा उसका स्वभाव है। उस चैतन्य राजा की निर्मलानन्द प्रजा/पर्याय प्रगट होने के काल में, उसे विकार से लाभ मानकर निर्मल प्रजा को अर्थात् निर्मल परिणति को विपरीत मान्यता से हत्या कर दे, वह चैतन्य का महा-अपराधी है। उस चैतन्यतत्त्व के विरोध के फल में महादुःखरूप नरकनिगोददशा प्राप्त होती है । ऐसे दुःख से छूटने का उपाय कैसे करना ? यह विधि यहाँ सन्त करुणापूर्वक समझाते हैं । [ 115 I नव तत्त्व में सातवाँ, निर्जरातत्त्व है । अन्तर में आत्मतत्त्व के अवलम्बन से निर्मलता की वृद्धि हो, अशुद्धता का अभाव हो और कर्म का खिरना हो - उसका नाम निर्जरा है। इसके अतिरिक्त देह की क्रिया में अथवा पुण्य में वास्तव में निर्जरा नहीं है । संवर -निर्जरा, वह धर्म है, मोक्ष का कारण है; वह आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होती है। इस प्रकार निर्जरातत्त्व को नहीं जानकर, पुण्य से निर्जरा होना माने अथवा जड़ की क्रिया से या रोटी नहीं खाने से निर्जरा होना माने तो उसे व्यवहार से भी नव तत्त्व का पता नहीं है; उसे सत्य विचार का उदय भी नहीं है । निर्जरा तो शुद्धता है और पुण्य अशुद्धता है । अशुद्धता से Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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